संपादकीय लेख:
भारत के लोकतांत्रिक और सामाजिक ताने-बाने के केंद्र में सदियों से जाति व्यवस्था रही है। स्वतंत्रता के बाद संविधान निर्माताओं ने एक ऐसे भारत की कल्पना की थी, जहां जन्म के आधार पर व्यक्ति की सामाजिक स्थिति निर्धारित न हो। परंतु व्यवहार में जाति आज भी सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक संरचनाओं को प्रभावित करती है। ऐसे में नरेंद्र मोदी सरकार द्वारा आगामी राष्ट्रीय जनगणना में जातिगत आंकड़े इकट्ठा करने का निर्णय एक ऐतिहासिक मोड़ है — जिसकी गूंज आने वाले वर्षों में देश के हर क्षेत्र में महसूस की जाएगी।
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि: जाति और जनगणना का रिश्ता
ब्रिटिश शासनकाल के दौरान 1931 की जनगणना में आखिरी बार भारतीय समाज की जातिगत स्थिति का व्यवस्थित आंकड़ा संकलित किया गया था। उसके बाद स्वतंत्र भारत ने जातिगत जनगणना से परहेज किया, ताकि नई पीढ़ी को जातिविहीन समाज की ओर प्रेरित किया जा सके। लेकिन सामाजिक विषमताओं और आर्थिक असमानताओं की गहरी जड़ें इस आदर्श को साकार नहीं कर सकीं। अनुसूचित जाति और जनजाति वर्ग के लिए आरक्षण और नीतियों का निर्धारण तो हुआ, लेकिन अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) के भीतर गहराई से व्याप्त विविधता का सम्यक मूल्यांकन संभव नहीं हो सका।
2011 में तत्कालीन यूपीए सरकार ने 'सामाजिक-आर्थिक जाति जनगणना' करवाई थी, लेकिन जातिगत आंकड़े आज भी सार्वजनिक नहीं किए गए। इससे साफ हो गया कि जाति को आंकड़ों में बांधना जितना आवश्यक है, उतना ही राजनीतिक रूप से संवेदनशील भी।
केंद्र का फैसला: आवश्यकता या मजबूरी?
मोदी सरकार का यह निर्णय ऐसे समय में आया है जब देश की राजनीति में 'सामाजिक न्याय' और 'प्रतिनिधित्व' का मुद्दा एक बार फिर प्रबल हो रहा है। ओबीसी, अति पिछड़ा, महादलित जैसी पहचानों ने राजनीतिक विमर्श में गहरी पकड़ बनाई है। विपक्षी दलों ने जातिगत जनगणना को लेकर केंद्र पर लगातार दबाव बनाया था। ऐसे में यह फैसला सामाजिक आवश्यकताओं की स्वीकृति है या राजनीतिक रणनीति का हिस्सा — इस पर बहस हो सकती है। पर इसमें संदेह नहीं कि इस कदम से देश की नीति निर्माण प्रक्रिया और सामाजिक ढांचे में भारी बदलाव की जमीन तैयार हो रही है।
जातिगत जनगणना के संभावित लाभ
जातिगत आंकड़ों के संकलन से नीति निर्माण में सटीकता आएगी। आज जब सरकारी योजनाओं का निर्धारण विभिन्न वर्गों की जनसंख्या, सामाजिक पिछड़ेपन और आर्थिक स्थिति पर आधारित होता है, तो उनके सटीक आंकड़ों का अभाव योजनाओं की प्रभावशीलता को बाधित करता है।
जातिगत जनगणना से निम्नलिखित लाभ संभावित हैं:
- पिछड़े वर्गों के भीतर भी सबसे पिछड़े समुदायों की सटीक पहचान।
- आरक्षण और कल्याणकारी योजनाओं में उचित लक्ष्य निर्धारण।
- नीति निर्माण में सामाजिक यथार्थ की बेहतर समझ।
- क्षेत्रीय और आर्थिक असमानताओं का वैज्ञानिक विश्लेषण।
साथ ही, यह डेटा नीति निर्माताओं को पारंपरिक धारणाओं के स्थान पर वास्तविक आंकड़ों के आधार पर निर्णय लेने में सक्षम करेगा। इससे उन समुदायों को भी पहचान मिल सकेगी जो अब तक हाशिए पर रहे हैं और जिन्हें 'एकरूप समूह' मानकर अनदेखा किया गया है।
जातिगत जनगणना से जुड़े 5 बड़े सवाल
1. क्या यह जनगणना सभी जातियों के विस्तृत आंकड़े संकलित करेगी?
— सरकार ने संकेत दिया है कि ओबीसी सहित सभी जातीय समूहों के आंकड़े संकलित किए जाएंगे, लेकिन प्रक्रिया की सूक्ष्मताओं का खुलासा अभी होना बाकी है।
2. क्या इससे आरक्षण नीति में बदलाव आएगा?
— संभव है। यदि कुछ समूहों की संख्या अधिक या कम पाई जाती है तो आरक्षण के अनुपात और वितरण में नए समीकरण बन सकते हैं।
3. क्या इससे सामाजिक तनाव बढ़ने का खतरा है?
— यदि आंकड़ों का दुरुपयोग हुआ या जातिगत असमानताओं को भड़काने की कोशिश हुई, तो सामाजिक विघटन की आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता।
4. क्या यह राजनीतिक दलों को वोट बैंक साधने का नया हथियार देगा?
— जातिगत आंकड़े दलों को अपनी रणनीति को और अधिक लक्ष्य आधारित बनाने का साधन दे सकते हैं, जिससे राजनीति में जातिवाद का प्रभाव बढ़ सकता है।
5. क्या डेटा की गोपनीयता और निष्पक्षता सुनिश्चित की जाएगी?
— सरकार ने गोपनीयता के नियमों के पालन का वादा किया है, लेकिन इसे व्यावहारिक रूप से लागू करना बड़ी चुनौती होगी। स्वतंत्र निगरानी व्यवस्था की आवश्यकता होगी।
संभावित जोखिम और सावधानियाँ
जहां जातिगत जनगणना सामाजिक न्याय के लिए उपयोगी साधन बन सकती है, वहीं इसके जोखिम भी कम नहीं हैं।
- सामाजिक विघटन का खतरा: जातीय पहचान को अत्यधिक उभारने से सामाजिक एकता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है। जातियों के बीच प्रतिस्पर्धा और टकराव की संभावनाएं बढ़ सकती हैं।
- राजनीतिक दुरुपयोग: चुनावी राजनीति में जातिगत आंकड़ों के आधार पर वोट बैंक साधने की प्रवृत्ति और गहरी हो सकती है। इससे मुद्दा आधारित राजनीति और सुशासन का एजेंडा पीछे छूट सकता है।
- डेटा गोपनीयता: इतने संवेदनशील आंकड़ों के लीक या दुरुपयोग की आशंका को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। यदि जातिगत आंकड़े गलत हाथों में चले जाएं तो सामाजिक तनाव बढ़ सकता है।
- भ्रम और अफवाहें: जातिगत संख्या को लेकर सार्वजनिक मंचों पर गलत व्याख्या से असंतोष फैल सकता है, जो कानून व्यवस्था के लिए चुनौती बन सकता है।
इसलिए सरकार को यह सुनिश्चित करना होगा कि संकलित आंकड़ों का उपयोग सिर्फ नीति निर्माण और सामाजिक उत्थान के उद्देश्य से ही हो, न कि राजनीति की प्रयोगशाला में हथियार की तरह।
आगे की राह: पारदर्शिता और जिम्मेदारी
जातिगत जनगणना को सफल और उपयोगी बनाने के लिए निम्नलिखित कदम आवश्यक हैं:
- स्वतंत्र तंत्र की निगरानी: डेटा संग्रह और विश्लेषण की प्रक्रिया में स्वतंत्र संस्थाओं की भागीदारी सुनिश्चित की जानी चाहिए।
- डेटा गोपनीयता की गारंटी: मजबूत साइबर सुरक्षा व्यवस्था और सख्त गोपनीयता कानून लागू किए जाने चाहिए।
- सांप्रदायिक और जातीय सौहार्द बनाए रखने की पहल: जनता को यह विश्वास दिलाना आवश्यक है कि इस प्रक्रिया का उद्देश्य विभाजन नहीं, बल्कि समावेशन है।
- निष्पक्ष और तथ्य आधारित संवाद: जातिगत आंकड़ों के विमर्श को तथ्यों और शोध आधारित चर्चाओं तक सीमित रखना होगा, न कि उन्मादी राजनीति तक।
ऐतिहासिक अवसर या भविष्य की चुनौती?
जातिगत जनगणना भारतीय समाज के लिए एक ऐतिहासिक अवसर है — अपने भीतर झांकने का, अपनी कमियों को पहचानने का और सामाजिक न्याय के लक्ष्य को वास्तविकता में बदलने का। परंतु इस प्रक्रिया में थोड़ी भी चूक सामाजिक सद्भाव के ताने-बाने को कमजोर कर सकती है।
इसलिए आवश्यकता है कि सरकार और समूचा राजनीतिक तंत्र इसे जिम्मेदारी, पारदर्शिता और संवेदनशीलता के साथ संभाले। जातिगत जनगणना को न तो भयभीत करने वाला अभियान बनाना चाहिए और न ही केवल राजनीतिक स्वार्थ साधने का जरिया।
अगर यह कार्य सही नीयत और दूरदर्शिता के साथ किया गया, तो यह भारत के लोकतंत्र को और अधिक समावेशी और न्यायपूर्ण बनाने की दिशा में मील का पत्थर साबित हो सकता है।
लेखक : अशोक कुमार झा
प्रधान संपादक : रांची दस्तक एवं PSA लाइव न्यूज

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