◆ 30 मई: हिंदी पत्रकारिता दिवस विशेष संपादकीय लेख ◆
◆ हिंदी पत्रकारिता का 198वाँ वर्ष: शब्दों की क्रांति से जनजागरण की शक्ति तक ◆
एक विरासत, जो कलम से बनी थी, खून से सींची गई और आज भी जिंदा है
30 मई का दिन हिंदी पत्रकारिता के इतिहास में एक अमिट अध्याय की तरह दर्ज है। यही वह दिन है जब सन् 1826 में ‘उदन्त मार्तण्ड’ के माध्यम से हिंदी भाषा में पत्रकारिता की नींव रखी गई। आज लगभग दो सदियों बाद, हिंदी पत्रकारिता न केवल एक भाषा की शक्ति है, बल्कि यह देश के करोड़ों जनमानस की भावनाओं, समस्याओं और आकांक्षाओं की आवाज़ बन चुकी है।
उदन्त मार्तण्ड के संपादक पं. जुगल किशोर शुक्ल ने जिस साहस और सोच के साथ अंग्रेजी शासन के दौर में हिंदी में पहला समाचारपत्र निकालने का साहस किया, वह अपने आप में एक क्रांति थी। यह वही युग था जब हिंदी भाषियों को ज्ञान, सूचना और राष्ट्रीय चेतना से जोड़ने के लिए कोई मंच नहीं था। पत्रकारिता तब मिशन थी, आंदोलन थी, और जनक्रांति का माध्यम भी।
स्वतंत्रता आंदोलन में हिंदी पत्रकारिता की भूमिका: कलम से लड़ी गई लड़ाई
हिंदी पत्रकारिता ने देश की स्वतंत्रता की लड़ाई में एक महत्वपूर्ण हथियार के रूप में कार्य किया। ‘भारत मित्र’, ‘कवि वचन सुधा’, ‘अभ्युदय’, ‘प्रताप’, ‘सरस्वती’, ‘हिन्दुस्तान’ जैसे पत्रों ने विदेशी हुकूमत के खिलाफ जनजागरण का बिगुल फूंका। बाल गंगाधर तिलक, गणेश शंकर विद्यार्थी, पं. माधवराव सप्रे, माखनलाल चतुर्वेदी और बाबू रघुवीर सहाय जैसे पत्रकारों ने अपने लेखों और संपादकीय के ज़रिए जनता में जागरूकता और स्वाभिमान की भावना जगाई।
गणेश शंकर विद्यार्थी ने लिखा था — “मैं पत्रकारिता को केवल पेशा नहीं, एक जिम्मेदारी समझता हूँ जो सत्ता से सवाल करने और जनता की पीड़ा को आवाज़ देने का कार्य करती है।” यही विचार आज भी प्रासंगिक हैं।
आज की हिंदी पत्रकारिता: विस्तार, प्रभाव और प्रश्न
आज हिंदी पत्रकारिता का दायरा असाधारण रूप से विस्तृत हो चुका है। प्रिंट मीडिया से लेकर डिजिटल प्लेटफॉर्म और यूट्यूब चैनल तक, हिंदी समाचारों की पहुँच गांव से लेकर ग्लोबल स्तर तक हो चुकी है। ‘दैनिक जागरण’, ‘हिंदुस्तान’, ‘अमर उजाला’, ‘राजस्थान पत्रिका’, ‘प्रभात खबर’, ‘नवभारत’, ‘देशबंधु’, ‘नई दुनिया’ जैसे प्रतिष्ठित समाचार पत्र लाखों-करोड़ों पाठकों तक रोज़ाना पहुंचते हैं।
लेकिन प्रश्न यह है: क्या आज की पत्रकारिता वही जनसेवा, वही संघर्ष और वही नैतिकता का निर्वहन कर रही है, जिसका सपना ‘उदन्त मार्तण्ड’ के साथ देखा गया था?
नए युग की चुनौतियाँ: पत्रकारिता और बाज़ार के बीच की जंग
आज हिंदी पत्रकारिता कई स्तरों पर संघर्ष कर रही है:
- कॉर्पोरेट हस्तक्षेप: बड़े कॉर्पोरेट घरानों के मीडिया में दखल से स्वतंत्र और निर्भीक पत्रकारिता का स्वर दबता जा रहा है।
- ‘TRP’ और ‘वायरलिज्म’ की दौड़: समाचारों की गहराई से ज़्यादा, अब तीव्रता मायने रखती है। सनसनीखेज हेडलाइन और ‘ब्रेकिंग न्यूज़’ ने संवेदनशील विषयों को भी उपभोग की वस्तु बना दिया है।
- डिजिटल संक्रमण: पारंपरिक पत्रकारिता डिजिटल मीडिया के साथ स्पर्धा में है। फेक न्यूज़, सूचना की अतिवृष्टि और सोशल मीडिया पत्रकारिता को अनिश्चितता की ओर ढकेल रही है।
- पत्रकारों की सुरक्षा: पत्रकारों पर हो रहे हमले, धमकियाँ और कानूनी शिकंजे स्वतंत्र पत्रकारिता के लिए गंभीर खतरा हैं।
समस्याओं के बीच उम्मीद की किरण
इन सभी समस्याओं के बावजूद देशभर में ऐसे हज़ारों पत्रकार, संपादक, फ्रीलांसर और जनमाध्यम कर्मी हैं जो आज भी सच की आवाज़ को ज़िंदा रखे हुए हैं। झारखंड से लेकर पूर्वोत्तर तक, राजस्थान से लेकर उत्तराखंड की घाटियों तक, हिंदी पत्रकारिता आज भी आम जनता की आवाज़ को मंच देती है। “गांव की मिट्टी से निकली पत्रकारिता” आज भी वहां तक जाती है, जहां सरकार की योजनाएँ नहीं पहुँच पातीं।
"ग्राउंड रिपोर्टिंग", "लोकल इशूज", "गांव-कस्बों की पत्रकारिता", और "जन-जन से संवाद" — यही हैं हिंदी पत्रकारिता की ताकत।
भविष्य की दिशा: पत्रकारिता को फिर बनाना होगा जनसंघर्ष का माध्यम
अगर हिंदी पत्रकारिता को अपनी मूल आत्मा को बचाना है तो उसे कुछ बुनियादी कदम उठाने होंगे:
- पत्रकारिता की शिक्षा को मजबूत बनाना – मीडिया संस्थानों में व्यावसायिक दक्षता के साथ-साथ नैतिक मूल्यों को शामिल किया जाए।
- स्वतंत्र और निष्पक्ष संस्थान – सरकारी विज्ञापनों और कॉर्पोरेट लाभ से स्वतंत्र मीडिया संस्थानों का निर्माण हो।
- डिजिटल पत्रकारिता में जवाबदेही – यूट्यूब, फेसबुक और वेबसाइटों पर खबरों के लिए एक नैतिक आचार संहिता बनाई जाए।
- ग्रामीण पत्रकारिता को बढ़ावा – गांव, कस्बों, और जनजातीय क्षेत्रों की पत्रकारिता को आर्थिक और तकनीकी सहायता दी जाए।
- पत्रकारों की सुरक्षा कानून – पत्रकारों को धमकियों, हमलों से सुरक्षा देने के लिए सख्त और स्पष्ट कानून बनाए जाएँ।
हिंदी पत्रकारिता दिवस केवल उत्सव नहीं, आत्मनिरीक्षण का अवसर है
30 मई केवल एक तिथि नहीं, बल्कि पत्रकारिता के उस संकल्प का स्मरण है जिसने आमजन को आवाज़ दी, सत्ता से सवाल किए, और अंधकार में उम्मीद की लौ जलाए रखी।
आज जबकि सूचनाओं का विस्फोट हो चुका है, सच्चाई दुर्लभ हो गई है, और पत्रकारिता अनेक दबावों में घिरी है — ऐसे में इस दिवस को केवल "मनाने" के बजाय "समझने" और "संवारने" की ज़रूरत है।
हिंदी पत्रकारिता को फिर से वह धार, वह ईमान और वह आवाज़ लौटानी होगी जो ‘उदन्त मार्तण्ड’ की पहली प्रति में थी — एक जनपक्षधर, निर्भीक और चेतनशील पत्रकारिता।
✍️ लेखक: अशोक कुमार झा
प्रधान संपादक – PSA Live News | Ranchi Dastak

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