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भगवान शिव के आशीर्वाद से गोस्वामी तुलसीदास जी ने रचा श्रीरामचरितमानस


संकलन एवं प्रस्तुती - प्रो० सुजीत मिश्र

              भगवान शिव के आशीर्वाद से गोस्वामी तुलसीदास जी ने रचा श्रीरामचरितमानस

सर्व विदित है कि रामचरितमानस महाकाव्य है, जिसकी रचना गोस्वामी तुलसीदास द्वारा की गई। परन्तु यह जानकर आश्चर्य होगा कि इस रचना की पृष्ठभूमि तैयार करने वाला कोई और नहीं बल्कि भगवान शिव हैं।

    आइए प्रारंभ करते हैं गोस्वामी तुलसीदास के जीवन-परिचय से:-

   गोस्वामी तुलसीदास एक सरयूपारिण ब्राह्मण (या सरयूपारी ब्राह्मण) थे, उनके पिता का नाम आत्माराम दूबे तथा माता का नाम हुलसी था। इनका जन्म राजापुर नामक एक ग्राम आज के उत्तरप्रदेश राज्य के चित्रकूट जिला में हुआ था। इनका जन्म 1554 ई. में श्रावण शुक्ल सप्तमी के दिन हुआ था। जन्म के समय बालक तुलसीदास रोए नहीं अपितु उनके मुख से ‘राम‘ का शब्द निकला।

    माँ के गर्भ में वे दस माह के बजाय बारह माह रहे तथा जन्म के समय उनका डील-डौल शरीर पाँच वर्ष के बालक सा था तथा उनके मुंह में बत्तीसों दाँत मौजूद थे। जन्म के कुछ ही दिनों उपरांत तुलसीदास की माता हुलसी की मृत्यु हो गई। चुनियाँ नाम की एक दासी ने लगभग पांच वर्ष तक इनका लालन-पालन की फिर वह भी मर गयी। जिससे वे अनाथ हो गए। गरीबी के कारण वे दर-दर भटकने लगे।

    -एक साधु, श्री नर हरिदास जी ने इस बालक को अपने साथ ले लिया और इनका नाम ‘‘राम-बोला‘‘ रखा। इस साधु की कुटिया अयोध्या में इनकी शिक्षा-दीक्षा प्रारम्भ हुई। राम-बोला नामक बालक तुलसीदास की प्रतिभा विलक्षण थी, एक बार गुरू मुख से जो सुन लेते उन्हें वह कंठस्थ हो जाता। साथ ही गायत्री मंत्र का स्पष्ट उच्चारण शीघ्र करने लगे। अयोध्या के इसी कुटी में संत नरहरिदास द्वारा इनका यज्ञोपवीत संस्कार कर ‘‘राम-मंत्र‘‘ की दीक्षा दी गई। फिर गुरू नरहरिदास ने तुलसीदास को राम-चरित से संबंधित कई प्रसंग सुनाए।

कुछ दिनों बाद तुलसीदास काशी चले गए। काशी में गुरू शेष-सनातनी के पास रहकर तुलसीदास ने पंद्रह वर्षों तक वेद-वेदांगोंका अध्ययन किया।

इस अध्ययन के बाद तुलसीदास अपने जन्मभूमि चित्रकूट जिलान्तर्गत राजापुर ग्राम लौट आए। राजापुर ग्राम (जिला चित्रकूट, उत्तरप्रदेश) में ही तुलसीदास पूजा-पाठ करने लगे व भगवान राम की कथा वाचक बन गए।

वर्ष 1583 ई. में तुलसीदास जी की शादी ब्राह्मण परिवार के भारद्वाज गोत्र की सुन्दर कन्या रत्नावली से हुई। वे सुखपूर्वक अपनी नव-विवाहिता पत्नी के साथ रहने लगे।

एक बार उनकी स्त्री मायके गई थी। कुछ ही दिनों बाद अपने प्रिय पत्नी से मिलने तुलसीदास पत्नी के मायके पहुॅच गए। उनकी पत्नी ने इस पर तुलसीदास को बहुत धिक्कारा, और कहा कि ‘‘ मेरे हाड़-मांस के शरीर में जितनी तुम्हारी आसक्ति है, उससे आधी भी यदि भगवान में होती तो तुम्हारा बेड़ा पार हो गया होता। ‘‘

तुलसीदास जी को अपनी प्रियतमा पत्नी की यह बात चुभ गयी । वे पत्नी के पास फिर रूके नहीं, तुरंत वहाँ से चल दिए। वहाँ से चलकर तुलसीदास जी प्रयाग आए। वहाँ उन्होनें गृहस्थवेश को त्यागकर ‘‘साधुवेश‘‘ ग्रहण किया। फिर तीर्थाटन करते काशी पहुँचे।

काशी में तुलसीदास रामकथा कहने लगे। वहां उन्हें एक दिन एक प्रेत मिला, जिसने उन्हें हनुमान जी का पता बतलाया। हनुमानजी से मिलकर तुलसीदास जी ने उनसे रघुनाथ जी का दर्शन कराने प्रार्थना की।

हनुमान जी ने कहा – ‘‘ तुम्हें चित्रकूट में रघुनाथ जी के दर्शन होंगे। ‘‘ इस पर तुलसीदास चित्रकूट की ओर चल दिए।

चित्रकूट पहुँचकर ‘‘ रामघाट ‘‘ पर उन्होंने अपना आसन जमाया। एक दिन वे प्रदक्षिणा करने निकले थे। मार्ग में उन्हें श्रीराम के दर्शन हुए। उन्होंने देखा कि दो बड़े ही सुंदर राजकुमार घोड़ा पर सवार होकर धनुष-बाण लिए जा रहे हैं। तुलसीदास उन्हें देखकर मुग्ध हो गए, परंतु उन्हें पहचान न सके। पीछे से हनुमान जी आकर उन्हे सारा भेद बताया। तो वे पश्चाताप करने लगे। हनुमान जी ने उन्हें सान्त्वना दी और कहा आपको फिर दर्शन होंगे।

वर्ष 1607 ई. की मौनी आमावस्या बुधवार के दिन उनके सामने भगवान श्री राम पुनः प्रकट हुए। उन्होंने बालक रूप में तुलसीदास जी से कहा – बाबा। हमें चन्दन दो!

हनुमान जी ने सोचा, वे इस बार भी धोखा न खा जाएं इसलिए उन्होनें तोते का रूप धारण करके यह दोहा कहा:-

चित्रकूट के घाट पर, भइ संतन की भीर।

तुलसीदास चंदन घिसें, तिलक देत रघुबीर।।

तुलसीदास उस अद्भूत छवि को निहारकर शरीर की सुधि भूल गए। भगवान अपने हाथ से चन्दन लेकर अपने तथा तुलसीदास जी के मस्तक पर लगाया और अंतर्धान हो गए।

तुलसीदास के काव्य गुणों का विकास:-

वर्ष 1628 ई. में ये हनुमान जी की आज्ञा से चित्रकूट से अयोध्या की ओर चल पड़े। उन दिनों प्रयाग में माघ मेला चल रहा था। प्रयाग के माघ मेला हेतु तुलसीदास कुछ दिन प्रयाग मेें ठहर गए। एक दिन एक वटवृक्ष के नीचे उन्हें याज्ञवल्क्य व भरद्वाज मुनियों के दर्शन हुए। वहां उस समय राम-चरित से संबंधित कथा चल रही थी। फिर तुलसीदास प्रयाग से काशी चले गए और वहॉ प्रह्लादघाट पर एक ब्राह्मण के घर निवास किया। वहॉ उनके अंदर कवित्व-शक्ति का स्फुरण हुआ और वे संस्कृत में पद्य-रचना करने लगे। परंतु दिन में वे जितने पद्य रचते, रात्रि में वे सब लुप्त हो जाते। यह घटना रोज घटती। कुछ दिनों बाद, तुलसीदास जी को स्वप्न हुआ।

भगवान शंकर ने स्वप्न में उन्हें आदेश दिया कि तुम अपनी भाषा में काव्य रचना करो। तुलसीदास की नींद उचट गई। वे उठकर बैठ गए। उसी समय भगवान शिव और पार्वती उनके सामने प्रगट हुए। तुलसी दास जी ने उन्हें साष्टांग प्रणाम किया। शिवजी ने कहा – ‘‘ तुम अयोध्या जाकर रहो और अपनी भाषा में काव्य रचना करो। ‘‘ मेरे आशीर्वाद से तुम्हारी कविता सामवेद के समान फलवती होगी। इतना कहकर श्री गौरी-शंकर अन्तर्धान हो गए। तुलसीदास जी उनकी आज्ञा शिरोधार्य कर काशी से अयोध्या चले आए।

वर्ष 1631 ईं का प्रारम्भ हुआ। उस साल रामनवमी के दिन प्रायः वैसा ही योग था, जैसा त्रेतायुग में राम जन्म के दिन था। उस दिन प्रातः काल तुलसीदास जी ने ‘‘श्रीरामचरितमानस ‘‘ की रचना प्रारम्भ की। दो वर्ष सात महीने छब्बीस दिनों में ग्रन्थ की समाप्ति हुई।

वर्ष 1633 ई. के शुक्लपक्ष में राम विवाह के दिन श्री राम चरित मानस के सातों खण्ड पूर्ण हो गए। इसके बाद तुलसीदास काशी चले आए। वहॉ उन्होंने भगवान विश्वनाथ और माता अन्नपूर्णा को रामचरित सुनाया। रात को पुस्तक श्री विश्वनाथ जी के मंदिर में रख दी गई। सबेरे पट खोला गया तो उस पर लिखा हुआ पाया गया – ‘‘सत्यम् शिवम् सुन्दरम् !” और नीचे भगवान शंकर की सही थी। इस औलौकिक घटना को देखकर तुलसीदास जी के साथ-साथ बाबा विश्वनाथ मंदिर के पंडितगण आश्चर्यचकित हो गए। गोस्वामी तुलसीदास ने इसे भगवान शिव की अपार अनुकम्पा मानते हुए मन ही मन प्रसन्न होते हुए स्वीकार किया कि भगवान शिव के आशीर्वाद से ही श्रीरामचरितमानस जैसे महाकाव्यों की रचना वे कर सके।

भगवान शिव के आशीर्वाद से गोस्वामी तुलसीदास जी ने रचा श्रीरामचरितमानस भगवान शिव के आशीर्वाद से गोस्वामी तुलसीदास जी ने रचा श्रीरामचरितमानस Reviewed by PSA Live News on 11:15:00 pm Rating: 5

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