✍ अशोक कुमार झा, प्रधान संपादक, रांची दस्तक / PSA Live News
रांची की धरती न केवल
जंगलों, जल और जनजातीय आत्मा की पहचान रही है, बल्कि यहां की परंपराएं और सांस्कृतिक
मेलों ने सदियों से इस धरती की
आत्मा को जीवित रखा है। इन्हीं परंपराओं में एक “घुरती रथ मेला” भी है, जो न केवल एक धार्मिक आयोजन है, बल्कि आदिवासी और स्थानीय ग्रामीण जीवनशैली का उत्सव भी है।
हर वर्ष यह मेला रथ यात्रा के साथ आरंभ होता है और स्थानीय ग्रामीणों द्वारा पूरी श्रद्धा, समर्पण और सहयोग से संपन्न किया जाता है। लेकिन विडंबना यह है कि आज वही ग्रामीण अपनी ही परंपरा के आयोजन में हाशिए पर खड़े कर दिए गए हैं — क्योंकि अब यह रथ मेला भी व्यवसायीकरण की चपेट में आ चुका है।
घुरती मेला: एक सांस्कृतिक विरासत
रांची में घुरती रथ मेला
कोई नया आयोजन नहीं है । यह सैकड़ों वर्षों से चली आ
रही हमारी परंपरा है, जिसे कुटे और आसपास के गांवों के पूर्वजों ने शुरू किया था। उनका
उद्देश्य यह था कि धार्मिक रथ यात्रा के साथ-साथ एक मेला भी लगे, जिससे आसपास के गांवों के लोग न केवल सांस्कृतिक रूप से जुड़ें, बल्कि उन्हें स्थानीय उत्पाद बेचने और
आर्थिक लाभ कमाने का अवसर भी प्राप्त हो सके।
साल में एक बार लगने वाला यह
मेला कई मायनों में ग्रामीण अर्थव्यवस्था का एक अस्थायी लेकिन महत्वपूर्ण केंद्र
रहा है। खेती के बाद के समय में जब गांवों में आर्थिक गतिशीलता कम हो जाती है, तब ऐसा मेला लघु उद्यम, हस्तशिल्प,
पारंपरिक खानपान, लोकनृत्य और सांस्कृतिक विनिमय का जरिया बनता है।
सांप्रदायिक सौहार्द का प्रतीक — ‘हम सबका मेला’
यह मेला सिर्फ एक जाति, धर्म या समुदाय का आयोजन
नहीं। हिंदू, आदिवासी,
ओबीसी, मुस्लिम, सभी इस मेला में सहयोग करते हैं — कोई स्टॉल लगाता है,
कोई सुरक्षा देता है, कोई झूले चलाता है,
कोई लाउडस्पीकर का प्रबंध
करता है।
ऐसे समय में जब देश में धर्म और जाति के नाम पर सामाजिक विभाजन फैलाने की कोशिशें हो रही हैं, घुरती मेला जैसे आयोजन एकता का जीवंत उदाहरण बनता हैं।
इसे सांप्रदायिक सौहार्द और
सामाजिक समरसता का प्रतीक बनाए रखना देश की साझी विरासत के लिए भी आवश्यक है।
महिलाओं
की भागीदारी : घरेलू काम से लेकर सामूहिक नेतृत्व तक
इस मेले की नींव में स्थानीय महिलाओं की मेहनत भी छिपी होती है — चाहे वो रथ यात्रा के लिए प्रसाद तैयार करना हो, बच्चों के साथ पुआ-पकवान बेचना हो, या सांस्कृतिक कार्यक्रमों में नृत्य और गीत प्रस्तुत करना हो।
परंतु यह भी एक कड़वी सच्चाई
है कि मेला में प्रबंधन, मंच और स्टॉल आवंटन जैसे निर्णयों में महिलाओं की
भूमिका लगभग नगण्य हो गई है।
इसलिए ज़रूरी है कि “घुरती मेला संचालन समिति” में कम से कम 40% महिला भागीदारी सुनिश्चित की जाए। यह मेला तब जाकर और जीवंत, और अधिक न्यायपूर्ण बनेगा।
परंपरा पर मंडराता व्यवसायीकरण का संकट
लेकिन बीते कुछ वर्षों से
जो तस्वीर सामने आ रही है, वह बेहद चिंताजनक होते जा रहा है। अब यह मेला स्थानीय लोगों के लिए नहीं, बल्कि ठेकेदारों और बड़े व्यापारियों के लिए मुनाफा कमाने का मंच बनता जा रहा है। ऐसे में कुछ ग्रामीणों
का कहना है कि उनके परंपरागत स्टॉलों को दरकिनार
कर भारी किराए पर बाहरी दुकानदारों को जगह दी जा रही है। उनके पारंपरिक उत्पादों और सांस्कृतिक
कार्यक्रमों को मंच नहीं मिल रहा,
और धीरे-धीरे उनका अपना मेला उनसे छिनता जा रहा है।
यह स्थिति न केवल उसके साथ
एक आर्थिक अन्याय है, बल्कि एक सांस्कृतिक विस्थापन भी है — जहाँ परंपरा को पूंजी के सामने झुका दिया गया है।
विस्थापित ग्रामीणों की दोहरी पीड़ा
कुटे गाँव और आसपास के
इलाके के ग्रामीण पहले से ही हटिया रेलवे, औद्योगीकरण और शहरीकरण के कारण विस्थापन की मार झेल चुके हैं। उनकी जमीनें छिनी गईं, घर उजड़े, रोजगार छिना। अब जब वे मेले जैसे आयोजनों से कुछ सामाजिक और आर्थिक जुड़ाव पाते हैं, तो उन्हें वहां से भी दरकिनार कर दिया जाता है।
हटिया विस्थापित परिवार
समिति के अध्यक्ष पंकज शाहदेव की
अध्यक्षता में हुई हालिया बैठक में ग्रामीणों ने दो टूक कहा कि अगर व्यवसायीकरण
इसी तरह हावी रहा तो भविष्य में इस मेला का
विरोध भी हो सकता है। यह चेतावनी सिर्फ एक आयोजन
के लिए नहीं है, बल्कि यह हाशिए पर खड़े लोगों की पहचान बचाने की पुकार है।
जन-नियंत्रण
की अवधारणा : मेला हमारे गाँव का है, हमारी निगरानी भी हो
अभी तक जो सबसे बड़ा संकट
सामने आया है, वह है — स्थानीय जन-नियंत्रण का अभाव।
जब तक मेला के संचालन, सुरक्षा, व्यय, स्टॉल आवंटन, मंच निर्धारण और आय-व्यय की
पारदर्शिता ग्राम स्तर की समिति के हाथ
में नहीं दी जाएगी, तब तक व्यवसायीकरण के खिलाफ
संघर्ष अधूरा ही रहेगा।
समाधान है – एक लोक संकल्प समिति (People’s Mela Control Committee) का गठन, जिसमें ग्राम प्रतिनिधि, युवा, महिला समूह, सामाजिक संगठन और प्रशासनिक प्रतिनिधि हों।
प्रशासन की भूमिका और जिम्मेदारी
यह सवाल प्रशासन से भी है।
क्या प्रशासन को यह ध्यान नहीं रखना चाहिए कि जिस आयोजन में वे सुरक्षा, सफाई और यातायात की जिम्मेदारी उठाते हैं, उसकी मूल आत्मा और स्थानीय
सहभागिता भी संरक्षित हो?
प्रशासन को चाहिए कि वह
मेला आयोजन में स्थानीय ग्राम समितियों को
भागीदार बनाए, स्टॉल के 70% हिस्से स्थानीय ग्रामीणों के लिए आरक्षित रखे, और मंच पर स्थानीय संस्कृति को
प्राथमिकता दे। तभी एक संतुलन बन सकता
है — धार्मिक आस्था, सांस्कृतिक पहचान और आर्थिक
न्याय के बीच।
मेला सिर्फ उत्सव नहीं, यह अस्मिता का प्रश्न है
आज जब दुनिया भर में सांस्कृतिक विरासतों के संरक्षण पर ज़ोर दिया जा रहा है, तब राँची जैसे शहर में अपने
ही पूर्वजों द्वारा शुरू की गई परंपरा के भीतर विस्थापन और वंचना की अनुभूति बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है।
घुरती रथ मेला सिर्फ एक
आयोजन नहीं है, यह ग्रामीणों की पहचान, स्वाभिमान और आत्मनिर्भरता का प्रतीक है। यदि इसे केवल टिकट, स्टॉल और मंच के
कॉन्ट्रैक्ट में बदल दिया गया तो यह मूल उद्देश्य की हत्या होगी।
इतिहास की गहराइयों से निकली परंपरा
झारखंड जैसे राज्य,
जो अपने आदिवासी,
जनजातीय और ग्रामीण
परंपराओं के लिए दुनिया में विशेष
पहचान रखता है, वहाँ “घुरती रथ मेला” जैसा आयोजन लोकजीवन की स्मृति और एक
सजीव विरासत है।
पुराने बुजुर्ग बताते हैं कि सदियों पहले जब इस क्षेत्र में राजाओं की सत्ता थी, तब गांवों के प्रमुख जनसमुदायों ने आपसी मेल-मिलाप और सामाजिक उत्सव
की भावना से यह रथ मेला शुरू किया। इसका उद्देश्य केवल पूजा नहीं था, बल्कि ग्रामीण आपसी सहयोग, साझी संस्कृति और सामूहिक उत्सव को जीवंत करना था।
यह मेला न सिर्फ एक धार्मिक प्रक्रिया, बल्कि स्थानीय लोकतंत्र, साझी संस्कृति और ग्रामीण अर्थव्यवस्था का भी मॉडल था।
मेला में रचा-बसा गाँव — जहाँ देवी,
दरबार और दादी की कहानियाँ
मिलती हैं
घुरती मेला केवल धार्मिक अनुष्ठान नहीं, यह गाँव की पूरी सामाजिक
संरचना का जीवंत प्रतिबिंब है। यहाँ देवी की आरती भी होती है, रथ की पूजा भी, लेकिन साथ ही दादी की लोककथाएँ, मवेशियों की खरीद-बिक्री, बच्चों के खिलौने, महिलाओं के द्वारा पकाए गए पिठा-पुआ, और युवा पीढ़ी के लोकनृत्य — सब कुछ एक साथ देखने को मिलता है।
यह वह ‘वर्टिकल कल्चर’ है, जो एक साथ पीढ़ियों को जोड़ता है। यह वह अंतर-पीढ़ीय संवाद है, जहाँ एक दादी अपने पोते को बताती है कि “घुरती मेला में जब तुम्हारे दादा ने पहली बार रथ खींचा था...”
अब जब यह मेला ठेकेदारों, फास्ट फूड,
स्टेज शो और टिकटों में सिमटता जा रहा है, तो यह संवाद भी टूटता जा
रहा है।
संस्कृति का मंच या कॉरपोरेट का कब्ज़ा?
आज जिस तरह ठेकेदारी, टिकट व्यवस्था, स्पॉन्सर-बोर्ड और ‘वीआईपी दर्शन’ जैसी व्यवस्थाएं मेला में देखने को मिलती हैं, वह यह सोचने पर मजबूर करता
है — क्या हम अपने ही सांस्कृतिक उत्सवों को बाज़ार की चपेट में सौंप चुके हैं? क्या हमारी संस्कृति अब इवेंट मैनेजमेंट कंपनियों के हवाले हो चुकी है?
यह मेला कभी लोकगीतों, मांदर की थाप, नगाड़ों,
हस्तशिल्प, पत्तल-बर्तन,
नींबू-चूड़ा, गोंद के खिलौनों और आत्मीय जुड़ाव का केंद्र था। अब इन सबकी जगह लाउड डीजे,
महंगे झूले, मोबाइल गेमिंग बूथ और ब्रांडेड फूड स्टॉल्स ने ले ली है।
क्या ये विकास है या सांस्कृतिक मूल्यों का मरणोत्सव?
प्रशासनिक और राजनीतिक चुप्पी : एक खतरनाक संकेत
ग्रामीणों की बातों में कहीं कोई अराजकता नहीं, बल्कि अपनी परंपरा की रक्षा की
चिंता है। वे कहते हैं कि प्रशासन का सहयोग चाहिए, लेकिन सिर्फ सुरक्षा या
सफाई के लिए नहीं — बल्कि स्थानीय सहभागिता सुनिश्चित करने के लिए।
स्थानीय जनप्रतिनिधियों को चाहिए कि वे इस विषय को पंचायत,
नगर निगम, विधानसभा और प्रशासनिक बैठकों में उठाएं। यदि यह मेला उनकी राजनीतिक संवेदनशीलता का
हिस्सा नहीं बनता, तो फिर यह मान लेना चाहिए कि ‘विकास’ के नाम पर परंपरा कुचली जा रही है।
समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण से देखें तो मेला केवल उत्सव नहीं, एक अनौपचारिक विश्वविद्यालय है
हर मेला केवल बिक्री और भीड़ का आयोजन नहीं होता। ग्रामीण मेलों की
भूमिका हमारे समाज में सदियों से ज्ञान, परंपरा,
सामूहिकता और बाजार की
शिक्षा देने वाली रही है।
“घुरती रथ मेला” में पीढ़ियों से बच्चे मिट्टी से खिलौने बनाना, परंपरागत गीत गाना, हाट में व्यवहार करना, घर की बनी चीजें बेचना, दूसरों की संस्कृति को जानना और लोक-न्याय के ढंग सीखते आए हैं। लेकिन जब इस आयोजन को मात्र कॉमर्शियल प्रॉफिट सेंटर बना दिया जाता है,
तो यह परंपरा की पाठशाला को पूंजी की जेल में बदल देने जैसा है।
विस्थापन की त्रासदी और सांस्कृतिक पुनर्जागरण की आवश्यकता
हटिया रेलवे स्टेशन,
प्लॉटिंग और अनियोजित विकास
के कारण कुटे, हटिया, रातू और आसपास के हजारों
परिवारों को विस्थापन की पीड़ा सहनी पड़ी है। सरकारें बुनियादी पुनर्वास की बात तो करती हैं, लेकिन उनकी संस्कृति, परंपरा,
और आत्मसम्मान का पुनर्वास नहीं करतीं।
“घुरती मेला” जैसे आयोजन इन विस्थापित परिवारों के लिए आर्थिक नहीं,
बल्कि भावनात्मक संबल हैं। यही उनका मंच है, यही उनकी पहचान है, यही उनका साझा संवाद है। यदि यह भी छीन लिया गया तो उनका इतिहास ही गुम हो जाएगा।
यह केवल मेला नहीं, यह सांस्कृतिक स्वराज का स्वर है
जब महात्मा गांधी ने ‘स्वदेशी’ और ‘ग्राम स्वराज’ की बात की थी, तो उसका तात्पर्य सिर्फ खादी पहनना नहीं था। उसका मूल था – स्थानीयता को प्राथमिकता देना, ग्राम आधारित आत्मनिर्भरता को बढ़ावा देना, और बाहरी हस्तक्षेप से स्थानीय
पहचान को बचाना।
“घुरती मेला” को अगर एक बार सांस्कृतिक स्वराज का
प्रयोग क्षेत्र बना दिया जाए, तो यह झारखंड के लिए स्थानीय मॉडल बन सकता है। पर्यटन, हस्तशिल्प, पारंपरिक फूड और सांस्कृतिक संवाद के ज़रिए यह एक स्थायी स्थानीय अर्थव्यवस्था को जन्म दे सकता है।
ग्लोबल सन्दर्भ में घुरती मेला : क्या दुनिया ने मेलों को ऐसे ही
बचाया?
आप जानकर चौंकेंगे कि जापान, स्पेन, थाईलैंड,
ब्राज़ील और इटली में ऐसे कई पारंपरिक मेले हैं जिन्हें UNESCO की ‘Intangible Cultural
Heritage’ सूची में शामिल किया गया
है।
इन आयोजनों को संरक्षित
करने के लिए सरकारें:
- स्थानीय समितियों को कानूनी शक्ति
देती हैं
- प्राथमिकता ग्रामीणों को दी जाती
है
- बाहरी कंपनियों की भूमिका सीमित
होती है
- पर्यटन से होने वाली आय को साझा
किया जाता है
झारखंड सरकार को भी चाहिए
कि वह “घुरती रथ मेला” जैसे आयोजनों को:
1.
राज्य सांस्कृतिक धरोहर घोषित करे
2.
यूनेस्को नामांकन प्रक्रिया शुरू करे
3.
स्थायी प्रबंधन बोर्ड बनाए जो ग्रामस्तरीय हो
मीडिया की भूमिका — क्या ग्रामीण आवाज़ें उनके कैमरे तक पहुँचती हैं?
मेला की रंगीनता तो हर टीवी कैमरा दिखाता है — लेकिन क्या वह कैमरा उस ग्रामीण महिला की पीड़ा भी दिखाता है, जिसका वर्षों से लगने वाला पीठा स्टॉल अब किसी
बाहरी ब्रांडेड कंपनी के नीचे दब गया है?
क्या वे चैनल उस ग्रामीण कलाकार से बात करते हैं, जिसकी ढोलक की जगह अब डीजे ने ले ली है?
मीडिया को चाहिए कि वह केवल प्रमोशनल विजुअल्स के पीछे न भागे,
बल्कि सांस्कृतिक संघर्षों, विस्थापितों की आवाज, और परंपरा बचाने की जद्दोजहद को मंच दे। क्योंकि यही असली पत्रकारिता है।
नई पीढ़ी को मेला से जोड़ना क्यों ज़रूरी है?
आज की पीढ़ी यदि सिर्फ शॉपिंग मॉल और मोबाइल
एप्स में रमती रही, तो आने वाले वर्षों में उन्हें अपने गाँव का नाम,
देवी की परंपरा, रथ यात्रा का मार्ग, हाट का अनुभव और स्थानीय लोककला का ज्ञान नहीं रहेगा।
जरूरी है कि स्कूलों और कॉलेजों में मेला आधारित शिक्षा मॉडल विकसित हो। बच्चों को रथ मेला से जोड़ा जाए — पेंटिंग, नुक्कड़ नाटक, पारंपरिक गीत, स्टोरीटेलिंग, लोककला आदि के ज़रिए। इससे उनमें सांस्कृतिक चेतना और सामाजिक उत्तरदायित्व दोनों आएगा।
आगामी दिशा: क्या राज्य सरकार तैयार है सांस्कृतिक नीति बनाने को?
झारखंड जैसे राज्य में जहाँ हर पर्व,
हर गीत और हर गांव एक जीवंत
विरासत है, वहाँ “राज्य सांस्कृतिक नीति” का अब तक अभाव है। घुरती मेला जैसे आयोजनों के संरक्षण के लिए ज़रूरी
है कि सरकार:
- स्थानीय
सांस्कृतिक आयोजनों की सूची बनाए
- व्यवसायीकरण
पर सीमा तय करे
- स्थानीय
समितियों को कानूनी मान्यता दे
- पर्यटन
के साथ-साथ संस्कृति पर आधारित योजना बनाए
यदि झारखंड “टूरिज्म हब” बनने की ओर बढ़ना चाहता है, तो उसे अपने मेलों और उत्सवों को स्थानीय नेतृत्व के साथ जोड़ना ही होगा।
सवाल
भविष्य का है —
हम कैसे
मेला छोड़कर मॉल में चले गए?
जो लोग यह सोचते हैं कि
घुरती मेला जैसे आयोजन पुरानी बात हैं — वे यह भूल जाते हैं कि मॉल
और मार्केट में आत्मा नहीं होती, केवल लेन-देन होता है। मेला वह जगह है जहाँ मोल-भाव नहीं, संवाद होता है। वहाँ रिश्ते बनते हैं, गीत गूंजते हैं, और गाँव अपनी स्मृति को फिर
से जीता है।
क्या यह सब केवल इसलिए मिटा
दिया जाए कि किसी कंपनी को ज्यादा किराया देना है?
यह घुरती मेला नहीं, यह
घुरती चेतना है — इसे
बुझने न दें
“घुरती रथ मेला” की लड़ाई केवल एक उत्सव
बचाने की नहीं है — यह संविधान, संस्कृति और समरसता बचाने की लड़ाई है।
- जब रथ यात्रा से पहले गाँव के बच्चे झंडा
गाड़ते हैं — वो लोकतंत्र है।
- जब महिला समूह प्रसाद बनाती हैं — वो आत्मनिर्भरता है।
- जब ग्रामीण सभा तय करती है कि कौन स्टॉल
लगाएगा — वो स्वराज है।
- जब व्यवसायीकरण को चुनौती दी जाती है — वो आत्मसम्मान है।
यह मेला नहीं रुकेगा। यह
चलता रहेगा —
जैसे हमारी साँसें चलती
हैं। क्योंकि जब तक घुरती मेला
जीवित है, तब तक हमारी जमीन, जड़ और जातीय चेतना भी जीवित है।
हर रथ को रोकने वाली रस्सी
एक दिन टूटती है। लेकिन जो रथ अपनी संस्कृति, अस्मिता और सामाजिक सामंजस्य की शक्ति से चलता है — उसे कोई नहीं रोक सकता। घुरती मेला उसी रथ का प्रतीक है — जो गाँव-गाँव, पीढ़ी-पीढ़ी, और आत्मा से आत्मा तक चलता आया है।
घुरती मेला कोई एक आयोजन
नहीं। यह एक जन स्मृति है, एक लोक उत्सव है, एक सांस्कृतिक संविधान है। इसे बचाना न केवल प्रशासन और राजनीति की जिम्मेदारी है, बल्कि हर जागरूक नागरिक की नैतिक जिम्मेदारी भी है।
यह मेला किसी ठेके या कॉन्ट्रैक्ट से नहीं चलता, यह चलता है
लोगों के भरोसे, परंपरा की भावना और समर्पण से — जिसे किसी भी
कीमत पर मिटने नहीं दिया जाना चाहिए।
यह केवल आयोजन नहीं — एक चेतावनी है कि अगर हमने अभी इस पर ध्यान नहीं दिया, तो आने वाले वर्षों में हम केवल एक स्लोगन बनकर रह जाएँगे: “यहाँ एक मेला हुआ करता था, जहाँ गाँव सांस लिया करता था।”
अगर समय रहते न चेता गया, तो आने वाले 10 वर्षों में यह मेला कॉरपोरेट इवेंट में बदल जाएगा, जहां स्थानीय लोगों की
भूमिका सिर्फ दर्शक की होगी। रथ तो खिंचेगा, लेकिन उसका हाथ बाहरी प्रबंधन एजेंसी के पास होगा। मंच सजेंगे, लेकिन उन पर मौलिक लोककला नहीं, किसी बड़ी कंपनी के डीजे
प्रमोशन होंगे।
उस दिन न हमारे पूर्वज गर्व
कर पाएंगे, न आने वाली पीढ़ियां हमें
माफ करेंगी।

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