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मिर्च मसाला और टीआरपी के दौर में बड़ी चुनौतियों से गुजर रही पत्रकारिता, इसे बचाना होगा

 सम्पादक - अशोक कुमार झा । 




संपादकीय 

लोकतंत्र के एक मजबूत स्तम्भ की साख आज दांव पर है जी हां मैं बात कर रहा हूं पत्रकारिता की, जो एक महत्वपूर्ण कड़ी है सरकार और जनता के बीच.  समाज में मीडिया की महत्वपूर्ण भूमिका है क्योंकि यह जनता और सरकार के बीच सामंजस्य बनाने में मदद करता है लेकिन ये अब ऐसे स्तर पे आ गया है जहां लोगों का भरोसा ही इस पर से खत्म होता जा रहा इसका अत्यधिक व्यावसायीकरण ही शायद इसकी इस हालत की वजह है पर जहां तक मैं सोचता हू आजकल तो हर समाचार बहुत ही तेज़ी से फ़ैल जाता  है और मिर्च मसाला लगाने में भी आसानी हो जाती है लोगों को  वायरल का फैशन चल पड़ा है तो कौन सुबह तक इंतज़ार करेगा । 

न्यूज चैनलों की बाढ़ सी आ गयी है पर आज सच्ची और खोजी पत्रकारिता में गिरावट आ गयी, सभी मीडिया हॉउस राजनितिक घरानों से जुड़े हुए हैं, टीआरपी बढ़ाने की होड़ लगी है, ज्वलंत मुद्दों पर चर्चा आम है, देश की चिंता कम विज्ञापनों की ज्यादा है. ये कारण भी इसके लिए कम जिम्मेदार नहीं राजनीति और पूंजीवाद से मीडिया की आजादी पर भी खतरा मंडरा रहा पिछले कुछ वर्षों में मीडिया से जुड़े कई लोगों पर कितने ही आरोप लगे, कुछ जेल भी गए तो कुछ का अब भी ट्रायल चल रहा आज पत्रकारिता और पत्रकार की विश्वसनीयता पर ही सवाल उठता है आखिर हो भी क्यों नहीं वो जिसे चाहे चोर बना दे, जिसे चाहे हिटलर कोर्ट का फैसला आता भी नहीं पर मीडिया पहले ही अपना फैसला सुना देता है किसी का महिमामंडन करने से थकता नहीं तो किसी को गिराने से पीछे हटता नहीं आज मीडिया का कोई भी माध्यम सच दिखाने से ही डरने लगा है कहीं आज मीडिया सरकार से तो नहीं डर रहा? खोजी पत्रकारिता का असर कुछ भयानक होने लगा है आये दिन पत्रकारों पर हमले होने लगे हैं किसी भी क्षेत्र की त्रुटि और भ्रष्टाचार को सामने लाने से पत्रकारो को जान से हाथ धोने पड़ रहे पत्रकार अपनी ईमानदारी से समझौता करने को विवश हो रहे अगर ये सच है तब तो वो दिन दूर नहीं जब हम सच और निष्पक्ष खबरों के लिए तरस जायेंगे । 

आज यही वास्तविकता है ब्लैकमेलिंग का ज़माना है, सभी पूर्ण रूप से व्यापारी बन चुके हैं डिजिटल युग में हर ओर प्रतिस्पर्धा है फलस्वरूप मीडिया को चलाने के लिए खर्चे भी बढ़े हैं इन खर्चों को पूरा करने के लिए ज्यादातर मीडिया हाउस सरकार, पूंजीपति और बड़ी बड़ी कंपनियों पर आश्रित हो गए हैं इन सब पर निर्भर होने से मीडिया की आजादी ही खतरे में आ गई है नेता, दलालों से गठबंधन, ब्रेकिंग न्यूज़, विज्ञापन और अनेक हथकण्डे अपना मीडिया आज आर्थिक रूप से सक्षम है पर क्या वो अपनी पहचान और वो वजूद कायम रखने में सक्षम है इसका जवाब आएगा नहीं सभी लोग, हम, आप और मीडिया बदलाव की बात तो करते हैं पर इनमें कोई भी बदलना नहीं चाहता सभी एक ही नाव पर सवार हैं पर स्थिति तो डंवाडोल और नाजुक है जो आम जनता की आवाज़ है वही कराह रहा तो कौन खड़ा होगा समाज को आइना दिखाने के लिए सरकार और सरकार के कार्यों पर कौन नज़र रखेगा हमारी और आपकी परेशानियों को सरकार तक कौन पहुंचायेगा विद्यार्थियों, कामगारों  और आम जनता की आवाज कौन बनेगा अब भी वक़्त है कि हम संभल जायें, चकाचौंध, टीआरपी की दौड़ और पैसों के पीछे न भाग हम निष्पक्ष पत्रकारिता पर ध्यान दें तो शायद लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ खोखला होने से बच जाये । 


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