भारत और पाकिस्तान के बीच रिश्ते हमेशा से नाजुक रहे हैं, लेकिन हाल ही में कश्मीर के पहलगाम में हुए आतंकी हमले के बाद से तनाव एक बार फिर चरम पर है। हमले के बाद केंद्र सरकार ने भारत में वीजा पर रह रहे पाकिस्तानी नागरिकों को देश छोड़ने का आदेश जारी किया। इस माहौल के बीच एक अनोखी कहानी सामने आई है—पाकिस्तान के एक पूर्व सांसद की, जो आज हरियाणा की गलियों में आइसक्रीम बेचकर अपनी जिंदगी गुजार रहे हैं।
यह कहानी है डबाया राम की—एक ऐसा नाम, जिसने कभी पाकिस्तान की संसद में शपथ ली थी, और आज अपने परिवार के लिए हर रोज सड़कों पर मेहनत कर रहे हैं।
संघर्षों में पला बचपन
डबाया राम का जन्म 1945 में पाकिस्तान के पंजाब प्रांत के एक छोटे से गांव में हुआ था। 1947 के विभाजन ने उनके परिवार को ऐसी जगह लाकर छोड़ दिया, जहां अल्पसंख्यक होना ही सबसे बड़ा अपराध बन गया।
बंटवारे के बाद कट्टरपंथ बढ़ा और अल्पसंख्यक(हिन्दू और सीख) समुदायों पर अत्याचार आम बात हो गई।
देश के विभाजन की आग ने उनके गांव को भी पूरी तरह झुलसा दिया। हिंदू और सिख परिवारों पर लगातार हमले होते रहे। परंतु उनके परिवार ने उस समय अपना गांव छोड़ने का फैसला नहीं किया, क्योंकि वहां उनकी खेती थी, जड़ें थीं, पूर्वजों की स्मृतियां थीं।
लेकिन समय के साथ दबाव भी बढ़ता चला गया। स्कूलों में हिंदू बच्चों के साथ हमेशा भेदभाव किये जाते
थे। साथ ही मंदिरों पर हमले और आए दिन
मिलती धमकियां उनकी जिंदगी का आम हिस्सा बन गया था, जो डबाया राम बचपन से ही यह सब
देखते हुए और झेलते हुए वहाँ उसी माहौल
में बड़ा हुआ था।
उसके परिवार पर भी कई बार ऐसा दबाव डाला जाता रहा
कि वे अपना धर्म(हिन्दू धर्म) छोड़ दें और इस्लाम अपना लें। लेकिन उनके परिवार
ने हर बार यह दबाव अस्वीकार किया और अपने विश्वास पर अडिग रहा।
एक साधारण से किसान का बेटा
ने अपने गाँव में ईमानदारी और सच्चाई की राह पर चलते हुए पाकिस्तान जैसे देश में अपने
समुदाय के लिए एक मजबूत आवाज बनाकर उभरा और समय के साथ अपने हक की लड़ाई को जारी रखा।
जिससे उसकी लोकप्रियता धीरे-धीरे स्थानीय समुदायों में
बढ़ने लगी और यही लोकप्रियता उसे राजनीति के गलियारों तक ले
गई।
निर्विरोध सांसद बनना: एक ऐतिहासिक क्षण
1988 में पाकिस्तान में नेशनल असेंबली का चुनाव हुआ, जिसमें अल्पसंख्यकों
के लिए आरक्षित सीट पर उसे उम्मीदवारी मिली थी। चूंकि वे समुदाय में इतने ज्यादा लोकप्रिय थे कि उसके खिलाफ किसी और उम्मीदवार
ने नामांकन ही नहीं किया, जिस कारण
वह बिना किसी विरोध के वहाँ का सांसद
चुन लिया गया।
फिर पाकिस्तानी संसद में पहुँचने
के बाद उसने काफी बहादुरी से वहाँ अल्पसंख्यकों (हिन्दू और सिखों) के अधिकारों की वकालत करता रहा। उस समय
वहाँ पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी (PPP) उभार पर थी और बेनजीर भुट्टो के नेतृत्व में देश में लोकतंत्र की नई
उम्मीदें जगी थीं। डबाया राम ने भी संसद में अपना समर्थन बेनजीर भुट्टो को दिया, जिसके बाद वे पाकिस्तान की प्रधानमंत्री बनीं थी।
लेकिन राजनीति का चकाचौंध
हमेशा सुरक्षित भविष्य की गारंटी नहीं देता। अल्पसंख्यक होने का दंश डबाया राम को
लगातार झेलना पड़ा। उनके परिवार के खिलाफ सामाजिक भेदभाव और अत्याचार थमने का नाम
नहीं ले रहा था।
फिर समय ऐसा आ गया कि पाकिस्तान में सत्ता की नजदीकी भी उसकी ढाल नहीं बन सकी। जैसे-जैसे कट्टरपंथ बढ़ा, उनके परिवार पर हमले बढ़ते चले गये। फिर एक समय ऐसा आया जब गांव में उनका घर ही असुरक्षित हो गया।
उस समय ऐसा वक्त था, जब राजनीति के भीतर रहकर भी वे अपने समुदाय को
सुरक्षा और सम्मान नहीं दिला पा रहे थे। वहाँ बढ़ती असहिष्णुता,
धमकियों और हिंसा ने उनके
सपनों को इतना कुचल डाला था कि एक सांसद की कुर्सी पर बैठा व्यक्ति भी खुद को सुरक्षित महसूस नहीं कर पा रहा था।
पलायन: आखिरी विकल्प
1999 में एक रात कुछ चरमपंथी युवकों ने उनके घर पर
पत्थरबाजी करने के साथ में धमकियाँ दिया
कि "या तो इस्लाम अपनाओ
या मरने के लिए तैयार रहो"। इस भयानक घटना ने उसके परिवार को मानसिक रूप
से तोड़ कर रख दिया। हालांकि
कोई जानमाल का नुकसान नहीं हुआ,
लेकिन यह स्पष्ट हो गया था कि अब वहां जीना मुश्किल हो गया है।
यह उसके लिए एक बहुत बड़ा निर्णायक क्षण था कि वह अपने परिवार को बचाने के लिये वहाँ से भाग जाये
या अपने और अपने परिवार के जानमाल का जोखिम लेकर वहीं संघर्ष करता रहे। और अंत में उसने पूरे परिवार के साथ भारत आने का निश्चय किया। फिर लंबी कानूनी प्रक्रियाओं और संघर्षों के बाद उसे वीजा प्राप्त हो सका, जिससे वह
13 परिवारों के साथ 35 लोग किसी तरह भारत पहुंच सके। फिर हरियाणा आकर रोहतक
में कुछ वर्ष काटने के बाद फतेहाबाद
जिले के रतनगढ़ गांव में बस गए।
भारत में संघर्ष की नई कहानी
अब भारत आ जाने के बाद भी उसकी चुनौतियां कम नहीं हुई थीं। शुरू में गांव के कुछ लोग पाकिस्तान से आए इस परिवार से ऐसे ही दूरी बनाकर रखते थे और सभी को शक की निगाहों से देखा जाता था। धीरे धीरे स्थानीय लोगों के बीच विश्वास अर्जित करने में भी समय लगा, लेकिन अपनी मेहनत, ईमानदारी और सरल स्वभाव के कारण गांव वालों का दिल जीत पाने में कामयाब हो पाया।
इसके अलावा पुलिस वेरिफिकेशन, वीजा एक्सटेंशन, फिर नागरिकता के लिए आवेदन जैसे मामलों को लेकर हर कदम पर सरकारी दफ्तरों के हमेशा चक्कर लगाने पड़े। उसके बाद नागरिकता
पाने के लिए लंबी कानूनी प्रक्रिया से गुजरना पड़ा। आज उनके परिवार के छह
सदस्यों को भारतीय नागरिकता मिल चुकी है, जबकि शेष लोगों ने आवेदन दे
रखा है।
सत्ता के शिखर से साधारण जिंदगी तक सफर
एक समय था जब डबाया राम
पाकिस्तान की संसद में बैठकर देश के भविष्य पर चर्चा किया करता था और आज का समय है जब वह हरियाणा की गलियों में आइसक्रीम बेचकर अपने परिवार का भरण-पोषण कर रहा है। आज फतेहाबाद के रतनगढ़ गांव में उनका छोटा सा ठेला
स्थानीय बच्चों के बीच लोकप्रिय बना हुआ है।
आज उसके चेहरे पर कोई शिकवा नहीं दिखता। बल्कि उसकी आंखों में संघर्ष की गहराई है, लेकिन साथ ही एक संतोष भी है कि आज वह अपने पूरे परिवार के साथ एक स्वतंत्र माहौल में सांस ले रहा है। आज उसका कहना है कि "यहां कम से कम डर नहीं है। मेहनत करते हैं, तो पेट भरता है। पाकिस्तान में तो जीने का भी डर था।"
इतने दिनों बाद आज फिर क्योंआये चर्चा में
कश्मीर के पहलगाम में हुए
भीषण आतंकी हमले के बाद जब सरकार ने वीजा पर रह रहे पाकिस्तानी नागरिकों को देश
छोड़ने का निर्देश दिया, तब उसका परिवार भी उस जांच के घेरे में आ गया। उसे भी पुलिस द्वारा पूछताछ के लिए बुलाया गया, लेकिन जांच में कुछ संदिग्ध नहीं पाया गया और उसे गांव लौटने की अनुमति दे दी गई।
आज उसका कहना है कि अब उसका पाकिस्तान से कोई नाता नहीं रहा। "हम भारतीय हैं और यहीं रहना
चाहते हैं।" उसका यह भाव उसके संघर्ष और समर्पण को बखूबी बयान करता है।
वर्तमान संघर्ष: सम्मान से जीने की जद्दोजहद
आज उसकी उम्र 80 साल हो चुकी है। उसका शरीर भी अब पहले जैसा मजबूत नहीं
रहा, लेकिन उसका हिम्मत
आज भी जवानी जैसा ही है। वह आज भी गांव के
गलियों में अपना आइसक्रीम ठेला चलाता है और बच्चों के बीच वह आज भी उसी 'आइसक्रीम अंकल'
के नाम से ही जाना जाता है।
उनकी पत्नी भी गांव में
महिलाओं के साथ कढ़ाई-बुनाई का काम करती हैं। उनके बेटे मजदूरी या छोटी-मोटी
नौकरियां करते हैं। उसका कहना
है कि , "आज हमारे पास ज्यादा कुछ नहीं है, लेकिन जितना भी है,
वह अपना है। यहां डर नहीं
है। यहां मेहनत करने पर रोटी मिलती है और इज्जत भी। पाकिस्तान में हम सांस भी
गिन-गिन कर लेते थे।"
गांव वालों की राय
रतनगढ़ गांव के सरपंच का
कहना है, "डबाया राम जी बहुत भले आदमी हैं। कभी किसी से
लड़ाई-झगड़ा नहीं किया। गांव में सब उनका सम्मान करते हैं। बच्चों को देखते ही
आइसक्रीम फ्री में भी दे देते हैं कई बार।"
उस गांव के ही एक युवक बताते हैं, "हमें तो जब पता चला कि वे पाकिस्तान के सांसद रहे हैं, तो यकीन ही नहीं हुआ। इतने साधारण इंसान हैं कि कोई घमंड नहीं
दिखता।"
बातचीत : जब डबाया राम ने साझा किए अपने जज्बात
प्रश्न: पाकिस्तान छोड़ने का फैसला आपके लिए कितना कठिन था?
डबाया राम:
बहुत कठिन था। जन्मभूमि कोई
ऐसे ही नहीं छोड़ता। लेकिन जब जीना ही मुश्किल हो जाए, तो इंसान को अपनी और अपने परिवार की जान बचाने के लिए फैसले लेने
पड़ते हैं। हमने अपने आत्मसम्मान के लिए पाकिस्तान छोड़ा था।
प्रश्न: संसद में बैठने के बाद सड़क पर आइसक्रीम बेचना... यह बदलाव आपको कैसा
महसूस कराता है?
डबाया राम:
पहले कुछ दिन भारी लगे। पर
धीरे-धीरे समझ आ गया कि असली सम्मान कुर्सी से नहीं, मेहनत से मिलता है। आज जब
मैं बच्चों को मुस्कुराते हुए आइसक्रीम देते देखता हूं, तो लगता है कि मेरी जिंदगी बेकार नहीं गई।
प्रश्न: आज भी पाकिस्तान से कोई संबंध या याद जुड़ी हुई है?
डबाया राम:
नहीं। अब वहां से कोई नाता
नहीं। जो कुछ भी था, वह पीछे छूट गया। अब हमारा भविष्य और हमारी पहचान
भारत से जुड़ी है।
प्रश्न: आपकी नई पीढ़ी के लिए क्या संदेश देना चाहेंगे?
डबाया राम:
मेहनत से बड़ा कोई धर्म
नहीं है। जहां इज्जत मिले, वहां मेहनत करो, देशभक्त बनो और कभी अपनी
जड़ें मत भूलो। सम्मान के लिए कुर्बानी देने से डरना नहीं चाहिए।
बड़ी तस्वीर: अल्पसंख्यकों के संघर्ष का चेहरा
डबाया राम की कहानी अकेली
नहीं है। बंटवारे के बाद पाकिस्तान में बचे हिंदू, सिख, ईसाई समुदायों ने दशकों तक भेदभाव और हिंसा झेली है और भारत आने वाले ये लोग अपने साथ जख्मों की विरासत और नई उम्मीदों का
सपना लाते हैं। उसका कहना है कि सीमाएं देश बदल सकती हैं, लेकिन इंसानियत की तलाश कभी खत्म नहीं होती।
एक बड़ी सीख
डबाया राम की कहानी सिर्फ
एक व्यक्ति की कहानी नहीं है। यह सत्ता, संघर्ष, और पहचान की कहानी है। यह दिखाती है कि सत्ता का रुतबा अस्थायी है, लेकिन मेहनत और आत्मसम्मान का रास्ता हमेशा स्थायी होता है। कुर्सियां
बदलती रहती हैं लेकिन मेहनत और इज्जत से जीने वाला इंसान हमेशा इतिहास में अपनी
जगह बना लेता है।
आज जब हम अपनी स्वतंत्रता
और लोकतंत्र का जश्न मनाते हैं,
तब डबाया राम जैसे लोगों का
संघर्ष हमें याद दिलाता है कि आजादी का मूल्य कितना बड़ा है। उन्होंने सत्ता खो दी, लेकिन आत्मसम्मान नहीं खोया। वे आज भी लड़ रहे हैं—इज्जत के साथ जीने की लड़ाई।
आज वे किसी कुर्सी पर नहीं, बल्कि समाज के दिलों पर राज कर रहे हैं—एक ऐसी मिसाल बनकर,
जो पीढ़ियों तक याद की
जाएगी।
डबाया राम की दास्तां सत्ता, संघर्ष, और सम्मान की अनूठी गाथा है।
वह हमें यह सिखाती है कि
असली शक्ति कुर्सी से नहीं, आत्मसम्मान और मेहनत से आती है। सत्ता चाहे छिन
जाए, लेकिन जो दिलों पर राज करता है, उसका मुकाम कभी छोटा नहीं होता।

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