संपादकीय लेख: रेल पटरियों पर पसरा ख़ौफ़: राप्तीसागर एक्सप्रेस पर हमले से उपजे सवाल और हिंदुस्तान की सुरक्षा व्यवस्था की असलियत
— अशोक कुमार झा, प्रधान संपादक, PSA Live News व Ranchi Dastak
18 मई 2025 की रात हिंदुस्तान की रेलगाड़ियों पर मंडरा रहे खतरे का एक और भयानक प्रमाण बनकर सामने आई। एर्नाकुलम से बरौनी जा रही लंबी दूरी की राप्तीसागर एक्सप्रेस जब सीवान-छपरा रेलखंड पार कर रही थी, तभी उस पर पत्थरों की बारिश शुरू हो गई। यह कोई प्राकृतिक आपदा नहीं, बल्कि समाज के भीतर पनपते एक नंगे सच की अभिव्यक्ति थी—रेल की खिड़की पर बैठे 28 वर्षीय यात्री विशाल कुमार के सिर पर पड़ा पत्थर उसी अराजकता का प्रतीक था, जो दिनों-दिन हमारी सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था पर भारी पड़ती जा रही है।यह अकेली घटना नहीं है। महज़ एक महीने पहले, 12 अप्रैल को, इसी मार्ग पर एकमा स्टेशन के निकट सीताराम एक्सप्रेस पर भी इसी प्रकार पत्थरबाजी हुई थी, जिसमें एक यात्री की भुजा टूट गई थी। दोनों घटनाएं इस बात की पुष्टि करती हैं कि यह कोई इत्तफाक नहीं, बल्कि संगठित अपराध की ओर बढ़ता हुआ एक खतरनाक रुझान है, जो न केवल यात्रियों की जान को संकट में डाल रहा है, बल्कि पूरे रेलवे तंत्र की विश्वसनीयता को भी चोट पहुँचा रहा है।
रेल पटरियों पर कौन फैला रहा दहशत?
यह सवाल अब महज़ एक सुरक्षा तकनीकी प्रश्न नहीं रहा। यह अब सामाजिक पतन, प्रशासनिक लापरवाही और सरकार की ज़िम्मेदारी पर भी प्रश्नचिन्ह बन चुका है। रेलवे सुरक्षा बल (RPF) ने स्वीकार किया है कि पथराव बड़हेरवा और डुमरी के बीच हुआ और आसपास की बस्तियों से असामाजिक तत्वों द्वारा ऐसी घटनाएं अंजाम दी जा रही हैं। सवाल यह है—क्या रेलवे को इस खतरे की पूर्व जानकारी नहीं थी? क्या अप्रैल की घटना के बाद पर्याप्त कार्रवाई हुई थी? अगर हाँ, तो फिर मई में वही दृश्य दोबारा क्यों दोहराया गया?
आज रेलवे ट्रैक के किनारे बसे गांवों में बेरोजगारी, नशाखोरी और शैक्षिक पिछड़ापन ऐसा विषैला माहौल बना रहे हैं, जो बच्चों को खेल की जगह हिंसा और अपराध की ओर धकेल रहा है। जब ट्रेन गुजरती है तो कुछ युवा मस्ती के नाम पर जानलेवा पत्थर चलाते हैं और फिर अंधेरे में गायब हो जाते हैं। यह महज़ बचकानी शरारत नहीं, यह संगीन अपराध है। रेलवे एक्ट की धारा 153 के तहत ऐसे हमलों में पाँच साल तक की सजा का प्रावधान है—पर सवाल यह है कि इस कानून को लागू कितनी बार किया गया?
लंबी दूरी की गाड़ियाँ, लेकिन सुरक्षा में लंबी दूरी?
राप्तीसागर एक्सप्रेस जैसी सुपरफास्ट ट्रेनों में आमतौर पर RPF की स्कॉर्टिंग टीम मौजूद रहती है। लेकिन यह टीम केवल एसी कोचों तक सीमित रहती है। जनरल बोगियों में तो मानो भगवान भरोसे ही यात्री यात्रा करते हैं। विशाल कुमार भी जनरल कोच S-3 में सफर कर रहे थे, और हादसे के शिकार हो गए।
इस घटना ने साफ कर दिया है कि हिंदुस्तान की रेलवे सुरक्षा प्रणाली में एक वर्गीय असमानता भी पनप रही है—जहाँ एसी कोच की निगरानी तो डिजिटल तकनीक से होती है, वहीं जनरल कोच को रामभरोसे छोड़ दिया गया है। यह असमानता भविष्य में और गहरा संकट खड़ा कर सकती है।
क्या ड्रोन से रुकेगा पथराव?
RPF के वरिष्ठ अधिकारियों ने ड्रोन सर्वे, मोबाइल पेट्रोलिंग और CCTV फुटेज की बात की है। लेकिन सवाल यह है कि क्या इससे उन बस्तियों की सोच बदलेगी, जहाँ से यह हिंसा जन्म ले रही है? क्या मात्र तकनीकी उपायों से सामाजिक अपराध का समाधान संभव है? जवाब है—नहीं। जब तक रेलवे ट्रैक के किनारे बसे क्षेत्रों में सामाजिक जागरूकता, रोजगार सृजन, शिक्षा और नागरिक चेतना का विस्तार नहीं होगा, तब तक ऐसे पत्थरबाज समाज में और पैदा होते रहेंगे।
यात्री भी बनें सुरक्षा भागीदार
RPF ने अपील की है कि यात्री संदिग्ध गतिविधियों की सूचना 182 हेल्पलाइन पर दें। यह एक सही कदम है, लेकिन यह भी स्पष्ट है कि आम नागरिक को 'सुरक्षा प्रहरी' बनाना तभी संभव है जब उसकी शिकायतों को गंभीरता से लिया जाए, उसका डेटा सुरक्षित रखा जाए और अपराधियों पर त्वरित कार्रवाई सुनिश्चित की जाए।
जब यात्री अपने मोबाइल से वीडियो या फोटो भेजता है, तो उसे यह भरोसा होना चाहिए कि वह सरकारी मशीनरी का हिस्सा बन रहा है—न कि महज़ एक 'क्लिक' जिसे फाइलों में दबा दिया जाएगा।
यह महज़ पथराव नहीं, जन-मानस पर हमला है
राप्तीसागर एक्सप्रेस पर हुआ यह हमला एक यात्री के सिर पर नहीं, हिंदुस्तान की लोकतांत्रिक व्यवस्था की गरिमा पर भी चोट है। यह हमला उस भरोसे पर है, जिससे करोड़ों लोग हर रोज़ भारतीय रेलवे की सेवाओं का उपयोग करते हैं। अगर रेल पटरियाँ असुरक्षित हो गईं, तो देश की अर्थव्यवस्था, एकता और सामाजिक संतुलन पर इसका असर तय है।
अब वक्त आ गया है कि केंद्र सरकार, रेलवे मंत्रालय, राज्य प्रशासन और समाज मिलकर ऐसी घटनाओं पर जीरो टॉलरेंस की नीति अपनाएं। साथ ही, रेलवे ट्रैक किनारे बसे क्षेत्रों में शिक्षा, रोजगार और सुरक्षा से जुड़े दीर्घकालिक कार्यक्रमों की शुरूआत की जाए।
जब तक रेलवे केवल 'लाल फीता' और 'फील्ड नोट्स' तक सीमित रहेगी, तब तक राप्तीसागर एक्सप्रेस जैसे नाम सिर्फ भय के प्रतीक बनते रहेंगे। हमें पटरियों को सिर्फ लोहे की नहीं, भरोसे की भी ज़ंजीर बनाना होगा।
लेखक: अशोक कुमार झा
प्रधान संपादक, PSA Live News व Ranchi Dastak

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