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राष्ट्र सर्वोपरि के पथ पर अपना सब कुछ न्योछावर करने वाले ऐसा महापुरुष डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी को नमन एवं वंदन : मालती अरोड़ा


हरियाणा/हिसार(राजेश सलूजा)
 । नाभिषेको न संस्कार: सिहंस्य क्रियते वने। विक्रमार्जितसत्वस्य स्वयमेव मृगेन्द्रता ।

वरिष्ठ भाजपा नेत्री मालती अरोड़ा पानीपत ने श्यामा प्रसाद मुखर्जी के बारे में बड़े गहन एवं विस्तार शब्दों से बताया कि हितोपदेश के इस श्लोक को चरितार्थ करते हुये कलकत्ता, बंगाल के अत्यंत ही प्रतिष्ठित एवं प्रतिभा संपन्न परिवार की विरासत के मालिक सर आशुतोष मुखर्जी बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे एवं शिक्षाविद् के रूप में विख्यात थे। जब उनके यहाँ 6 जुलाई, 1901 को पुत्र ने जन्म लिया तब किसी को कल्पना भी नहीं थी कि यह बेटा डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी के रूप में देश की राजनीति को नई दिशा प्रदान करेगा और भारतीय जनसंघ जैसी राष्ट्रवादी पार्टी का संस्थापक होगा। होनहार बिरवान के होत चीकने पात कहावत को चरितार्थ करते हुए वे अपनी मैट्रिक शिक्षा 1917 में पूर्ण कर 1921 में बीए की उपाधि अर्जित करने के उपरांत 1923 में लॉ की उपाधि ग्रहण कर विदेश चले गए और 1926 में इंग्लैंड से बैरिस्टर बनकर वापस स्वदेश लौटे। अपने पिता का अनुसरण करते हुए 33 वर्ष की अल्पायु में वे 8 अगस्त 1934 से 7 अगस्त 1938 तक कलकत्ता विश्वविद्यालय के कुलपति रहे। इस पद पर नियुक्ति पाने वाले वे सबसे कम आयु के कुलपति थे। एक विचारक तथा प्रखर शिक्षाविद् के रूप में उनकी उपलब्धि तथा ख्याति निरन्तर आगे बढ़ती गयी।


डॉ. मुखर्जी सच्चे अर्थों में मानवता के उपासक और अपने सिद्धांतों से समझौता न करने वाले व्यक्ति थे उन्होंने स्वेच्छा से अलख जगाने के उद्देश्य को सामने रखकर राजनीति में प्रवेश किया। उन्होंने गैर कांग्रेसी हिंदुओं को साथ लेकर कृषक प्रजा पार्टी से मिलकर प्रगतिशील गठबंधन बनाया तथा सरकार में वित्त मंत्री का दायित्व भी संभाला। इसी दौर में डॉ मुखर्जी सावरकर के राष्ट्रवाद के प्रति आकर्षित हुए और हिंदू महासभा में सम्मिलित हो गए।


बंगाल में साम्प्रदायिक विभाजन की नौबत आ रही थी। वहां मुस्लिम लीग की राजनीति से वातावरण दूषित हो रहा था। साम्प्रदायिक लोगों को ब्रिटिश सरकार प्रोत्साहित कर रही थी। ऐसी विषम परिस्थितियों में उन्होंने बीड़ा उठाया कि बंगाल में हिन्दुओं की उपेक्षा न हो। अपनीविशिष्ट रणनीति से उन्होंने बंगाल के विभाजन के मुस्लिम लीग के प्रयासों को पूरी तरह से नाकाम कर दिया। 1942 में ब्रिटिश सरकार ने विभिन्न राजनैतिक दलों के छोटे-बड़े सभी नेताओं को जेलों में डाल दिया।


डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी इस धारणा के प्रबल समर्थक थे कि सांस्कृतिक दृष्टि से हम सब एक हैं। इसलिए धर्म के आधार पर वे विभाजन के कट्टर विरोधी थे। वे मानते थे कि विभाजन सम्बन्धी उत्पन्न हुई परिस्थिति ऐतिहासिक और सामाजिक कारणों से थी। वे मानते थे कि आधारभूत सत्य यह है कि हम सब एक हैं। हममें कोई अन्तर नहीं है। हम सब एक ही रक्त के हैं। एक ही भाषा, एक ही संस्कृति और एक ही हमारी विरासत है। परन्तु उनके इन विचारों को अन्य राजनैतिक दल के तत्कालीन नेताओं ने अन्यथा रूप से प्रचारित-प्रसारित किया। बावजूद इसके लोगों के दिलों में उनके प्रति अथाह प्यार और समर्थन बढ़ता गया। अगस्त, 1946 में मुस्लिम लीग ने जंग की राह पकड़ ली और कलकत्ता में बर्बरतापूर्वक अमानवीय मारकाट हुई। यह अत्यंत ही कठिन दौर था, जिसमें ब्रिटिश सरकार की भारत विभाजन की गुप्त योजना और षड्यन्त्र को एक कांग्रेस के नेताओं ने अखण्ड भारत सम्बन्धी अपने वादों को ताक पर रखकर स्वीकार कर लिया। इस समय डॉ मुखर्जी ने बंगाल और पंजाब के विभाजन की माँग उठाकर प्रस्तावित पाकिस्तान का विभाजन कराया और आधा बंगाल और आधा पंजाब खण्डित भारत के लिए बचा लिया। गान्धी जी और सरदार पटेल के अनुरोध पर वे भारत के पहले मन्त्रिमण्डल में शामिल हुए। उन्हें उद्योग जैसे महत्वपूर्ण विभाग की जिम्मेदारी सौंपी गयी। संविधान सभा और प्रान्तीय संसद के सदस्य और केन्द्रीय मन्त्री के नाते उन्होंने शीघ्र ही अपना विशिष्ट स्थान बना लिया। किन्तु उनके राष्ट्रवादी चिन्तन के चलते अन्य नेताओं से मतभेद बराबर बने रहे। फ्लतः राष्ट्रीय हितों की प्रतिबद्धता को अपनी सर्वोच्च प्राथमिकता मानने के कारण उन्होंने मन्त्रिमण्डल से त्यागपत्र दे दिया। उन्होंने एक नई पार्टी बनायी जो उस समय विरोधी पक्ष के रूप में सबसे बड़ा दल था। अक्टूबर, 1951 में भारतीय जनसंघ का उद्भव हुआ।


मुखर्जी जम्मू कश्मीर को भारत का पूर्ण और अभिन्न अंग बनाना चाहते थे। उस समय जम्मू कश्मीर का अलग झण्डा और अलग संविधान था। वहाँ का मुख्यमन्त्री (वजीरे-आज़म) अर्थात् प्रधानमन्त्री कहलाता था। संसद में अपने भाषण में डॉ मुखर्जी ने धारा 370 को समाप्त करने की भी जोरदार वकालत की। अगस्त 1952 में जम्मू की विशाल रैली में उन्होंने अपना संकल्प व्यक्त किया था कि या तो मैं आपको भारतीय संविधान प्राप्त कराऊँगा या फिर इस उद्देश्य की पूर्ति के लिये अपना जीवन बलिदान कर दूँगा। उन्होंने तात्कालिन नेहरू सरकार को चुनौती दी तथा अपने दृढ़ निश्चय पर अटल रहे। अपने संकल्प को पूरा करने के लिये वे 1953 बिना परमिट लिये जम्मू कश्मीर की यात्रा पर निकल पड़े। वहाँ पहुँचते ही उन्हें गिरफ्तार कर नजरबन्द कर लिया गया। कश्मीर कारावास में 23 जून, 1953 को 51 वर्ष की उम्र में रहस्यमय परिस्थितियों में उनकी मृत्यु हो गयी।

राष्ट्र सर्वोपरि के पथ पर अपना सब कुछ न्योछावर करने वाले ऐसा महापुरुष डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी को नमन एवं वंदन : मालती अरोड़ा राष्ट्र सर्वोपरि के पथ पर अपना सब कुछ न्योछावर करने वाले ऐसा महापुरुष डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी को नमन एवं वंदन : मालती अरोड़ा Reviewed by PSA Live News on 11:20:00 pm Rating: 5

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