(एक विश्लेषणात्मक विशेष लेख)
देश में जब भी कोई धार्मिक या जातीय पहचान से जुड़ा गंभीर अपराध सामने आता है, तो राजनीतिक दलों की प्रतिक्रियाएं अक्सर पीड़ित और आरोपी की पहचान के आधार पर तय होती दिखती हैं। ऐसा ही एक चिंताजनक उदाहरण झारखंड से सामने आया है, जहां ‘चंगूर बाबा’ नामक स्वयंभू मौलवी पर अल्पवयस्क सहित अनेक महिलाओं के यौन शोषण, दुष्कर्म, बंधक बनाना और मानव तस्करी जैसे संगीन आरोप लगे हैं, लेकिन इसके बावजूद राष्ट्रीय स्तर के अधिकतर राजनीतिक दलों की रहस्यमय चुप्पी इस पूरे प्रकरण को एक धर्म-आधारित सियासी पाखंड की ओर इंगित करती है।
चंगूर बाबा कौन है?
चंगूर बाबा, जिनका वास्तविक नाम मोहम्मद चंगूर अंसारी बताया जा रहा है, झारखंड के हजारीबाग जिले में स्थित उर्स मेला और मज़ार परिसर से वर्षों से गतिविधियाँ संचालित कर रहा था। बाबा के प्रभाव क्षेत्र में मुस्लिम समुदाय की महिलाएं न केवल इलाज और मन्नत के लिए आती थीं, बल्कि कई महिलाएं वहीं रहने भी लगी थीं। अब जो खुलासे हो रहे हैं, उसके अनुसार चंगूर बाबा ने अपने प्रभाव और ‘धार्मिक आभामंडल’ का इस्तेमाल करते हुए कई महिलाओं को मानसिक रूप से नियंत्रित कर यौन शोषण किया, उन्हें डराया-धमकाया, और कुछ को बंधक बनाकर मानव तस्करी का जाल भी बिछाया।
मामले में गंभीर आरोप, पर राजनीतिक प्रतिक्रियाओं का अभाव क्यों?
इस मामले में सबसे बड़ा सवाल यह है कि:
यदि आरोपी कोई हिन्दू बाबा होता और पीड़ित महिलाएं मुस्लिम होतीं, तो क्या देश का यही राजनीतिक तंत्र इतनी चुप्पी साधे बैठा होता?
उत्तर है – "नहीं।"
यदि घटनास्थल, पीड़िता और आरोपी की धार्मिक पहचान उलट दी जाती, तो ये वही राजनीतिक दल होते जो:
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तुरंत हेट क्राइम का मामला बनाते।
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इसे अल्पसंख्यकों के उत्पीड़न से जोड़ते।
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सड़क से संसद तक हंगामा करते।
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अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भी हिंदुस्तान को बदनाम करने से पीछे नहीं हटते।
यही दोहरापन उस राजनीतिक नैतिकता की खोखली दीवार को उजागर करता है, जिसे "धर्मनिरपेक्षता" की आड़ में "वोट बैंक तुष्टीकरण" के लिए खड़ा किया गया है।
कौन-कौन हैं खामोश और क्यों?
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कांग्रेस पार्टी:
अल्पसंख्यक तुष्टिकरण की जननी मानी जाने वाली कांग्रेस ने इस पूरे मामले में न तो कोई कड़ी निंदा की और न ही महिला उत्पीड़न के मुद्दे पर संसद या सड़क पर कोई सवाल उठाया।
कारण: मुस्लिम समुदाय का वोट बैंक नाराज़ न हो। -
राजद, जेडीयू, तृणमूल, सपा, बसपा जैसी क्षेत्रीय पार्टियाँ:
आम तौर पर दलित, पिछड़े और महिलाओं के हक की आवाज उठाने वाले ये दल इस मामले में खामोश हैं।
कारण: आरोपी मुसलमान है, विरोध करने से ध्रुवीकरण का खतरा। -
लेफ्ट पार्टियाँ (CPM, CPI):
धर्मनिरपेक्षता के सबसे बड़े स्वघोषित झंडाबरदार, जो हर छोटी धार्मिक हिंसा पर कूद पड़ते हैं, इस बार पूरी तरह शांत हैं।
कारण: "शोषण" यदि किसी मौलवी या पीर द्वारा हो तो वो ‘वर्ग संघर्ष’ में नहीं आता! -
महिला अधिकार संगठन:
शहरी विमर्श में महिलाओं की आज़ादी की बात करने वाले अनेक NGO, पत्रकार और फेमिनिस्ट इस बार असहज चुप्पी में हैं।
कारण: उनका नैरेटिव तब ही सक्रिय होता है जब "पीड़िता अल्पसंख्यक" और "आरोपी बहुसंख्यक" हो।
मीडिया की भूमिका: सलेक्टिव साइलेंस या डर?
मामला स्थानीय मीडिया में जरूर उठा, लेकिन राष्ट्रीय मीडिया, खासकर तथाकथित ‘लिबरल’ चैनलों और अखबारों ने इसे या तो छुआ ही नहीं या इसे हल्के तौर पर "बाबा विवाद" कहकर दबाने की कोशिश की।
क्या इसका कारण यह है कि आरोपी मुस्लिम है और मीडिया की आलोचना के डर से कोई पक्ष नहीं लेना चाहता?
सोचने के सवाल:
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क्या महिलाओं के साथ अत्याचार उनके धर्म के आधार पर कम गंभीर हो जाते हैं?
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क्या यह दोहरा रवैया वास्तव में अल्पसंख्यकों के प्रति संवेदना है या सिर्फ वोटों का खेल?
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क्या महिला अधिकारों की बात करने वाले सिर्फ तब मुखर होंगे जब वह "राजनीतिक अनुकूलता" के अनुसार हो?
सरकार और प्रशासन की भूमिका:
झारखंड की वर्तमान सरकार, जिसमें झामुमो और कांग्रेस दोनों शामिल हैं, पर पहले से ही कानून-व्यवस्था और महिला सुरक्षा को लेकर सवाल उठते रहे हैं। लेकिन इस मामले में कोई उच्चस्तरीय जांच या आरोपी के नेटवर्क पर व्यापक कार्रवाई नहीं दिख रही।
क्या यह सरकार की राजनीतिक मजबूरी है? या फिर यह मान लिया गया है कि धार्मिक संस्थानों से जुड़े मामलों में "सांप्रदायिक शांति" बनाए रखने के लिए सच्चाई दबा देना ही श्रेयस्कर है?
एक खतरनाक परंपरा का आरंभ
चंगूर बाबा का मामला न सिर्फ एक घिनौना अपराध है, बल्कि यह हमारे लोकतंत्र की उस खतरनाक दिशा की ओर इशारा करता है, जहां न्याय, समानता और संवेदना – धर्म के तराजू पर तोली जाती है।
यदि देश में दो अलग-अलग मापदंड – एक हिंदू आरोपी के लिए और दूसरा मुस्लिम आरोपी के लिए – लागू होते हैं, तो यह न केवल संविधान के मूल सिद्धांतों का अपमान है, बल्कि यह देश की सामाजिक समरसता के लिए भी गंभीर खतरा है।
राजनीतिक दलों की चुप्पी सिर्फ वोट की मजबूरी नहीं है, यह लोकतंत्र की आत्मा के खिलाफ एक साजिश है, जिसे उजागर करना और प्रश्न उठाना आज हर जागरूक नागरिक की जिम्मेदारी है।
✍ लेखक: अशोक कुमार झा
प्रधान संपादक – PSA Live News / रांची दस्तक
(राष्ट्रीय सुरक्षा और सामाजिक समरसता के विषयों पर विशेष लेखन)

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