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जब न्याय का मान बढ़ेगा, तभी रामराज्य लौटेगा

झूठे मुकदमे, पक्षपाती वकील, अन्यायपूर्ण फैसले और भटकाती मीडिया पर नियंत्रण अनिवार्य

लेखक: अशोक कुमार झा, प्रधान संपादक — रांची दस्तक एवं PSA Live News


हमारा देश हिंदुस्तान — एक महान सभ्यता का प्रतीक है, जिसकी नींव सत्य, अहिंसा, धर्म और न्याय पर टिकी रही है। हमारे पूर्वजों ने हजारों वर्षों तक जिस 'रामराज्य' की कल्पना की, वह केवल एक धार्मिक अवधारणा नहीं, बल्कि एक सामाजिक और नैतिक व्यवस्था थी — जहाँ राजा भी न्याय के अधीन था, कानून सबके लिए एक समान था, और हर नागरिक की गरिमा अक्षुण्ण थी। परंतु आज जब हम अपने चारों ओर देखते हैं, तो लगता है कि हमने उस मार्ग से भटकाव शुरू कर दिया है।

आज समाज में ऐसे कई उदाहरण देखने को मिलते हैं, जहाँ बेकसूर व्यक्ति को झूठे मुकदमों में फंसाया जाता है, पक्षपाती वकील उन्हें न्याय से दूर ले जाते हैं, न्यायपालिका की कुछ इकाइयाँ राजनीतिक या निजी प्रभाव में आकर नाइंसाफी करती हैं, और मीडिया टीआरपी व एजेंडे के लिए झूठी कहानियों को गढ़ती है। इस तंत्र में यदि कहीं सबसे ज़्यादा चोट पहुंचती है, तो वह होती है – सत्य की, और उस आम नागरिक की जो न्याय की आस लिए सिस्टम के सामने खड़ा होता है।

1. झूठे मुकदमे: कानून का सबसे अमानवीय उपयोग

आज देश में हज़ारों ऐसे मुकदमे दर्ज होते हैं जो झूठे आरोपों पर आधारित होते हैं। कई बार राजनीतिक प्रतिशोध, पारिवारिक दुश्मनी, जमीनी विवाद या निजी ईर्ष्या के चलते निर्दोष लोगों पर IPC की गंभीर धाराएं लगाकर उनकी ज़िंदगी बर्बाद कर दी जाती है।

एक बार किसी व्यक्ति पर हत्या, बलात्कार, देशद्रोह या भ्रष्टाचार जैसे गंभीर आरोप लग जाएं, तो चाहे वह अंततः बरी भी क्यों न हो जाए, समाज में उसकी छवि हमेशा के लिए धूमिल हो जाती है। जेल की यातना, समाज की नजरें, परिवार की पीड़ा — ये सभी किसी व्यक्ति को मानसिक और सामाजिक रूप से तोड़ देती हैं। क्या यह भी एक तरह का 'मृत्युदंड' नहीं है?

समाधान: झूठे मुकदमे दर्ज कराने वालों पर सख्त कानूनी कार्रवाई की जरूरत है। जब तक आरोप लगाने वाले को भी गलत सिद्ध होने पर समान सज़ा का प्रावधान नहीं होगा, तब तक यह प्रवृत्ति नहीं रुकेगी।

2. वकीलों की भूमिका: न्याय का रक्षक या मोहरा?

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 39A में यह निर्देश दिया गया है कि न्याय तक पहुँच सभी को समान रूप से मिले, चाहे वह अमीर हो या गरीब। लेकिन व्यवहार में देखा जाए तो वकालत अब एक व्यवसाय बन गई है, सेवा नहीं।

ऐसे कई उदाहरण हैं जहाँ वकील जानबूझकर झूठे गवाह खड़े करते हैं, सबूतों को तोड़-मरोड़ कर अदालत को गुमराह करते हैं, और मुकदमे को वर्षों तक लटकाए रखते हैं — सिर्फ अपने आर्थिक लाभ के लिए। जब वकील खुद ही झूठ को सच साबित करने में माहिर हो जाएं, तो फिर न्याय की उम्मीद कहाँ से करें?

समाधान: वकीलों की आचार संहिता का कड़ाई से पालन कराना और झूठे गवाह या सबूत प्रस्तुत करने पर बार काउंसिल द्वारा लाइसेंस निलंबन जैसे दंड अनिवार्य किया जाना चाहिए।

3. न्यायपालिका: जब 'देरी' भी अन्याय बन जाती है

'न्याय में देरी, न्याय से वंचना के समान है' — यह कहावत भारत में एक कटु सत्य बन चुकी है। आज देश की अदालतों में करीब 5 करोड़ मुकदमे लंबित हैं, और इनमें से लाखों ऐसे हैं जो 10–20 वर्षों से चल रहे हैं। कई मामलों में न्यायाधीशों की व्यक्तिगत सोच, सामाजिक पक्षपात, या राजनीतिक दबाव भी निर्णय को प्रभावित करता है।

हम मानते हैं कि न्यायाधीशों की नियुक्ति, स्थानांतरण, और जवाबदेही एक संवेदनशील विषय है, पर जब कोई जज खुलेआम ‘सहानुभूति’ के आधार पर अपराधी को राहत देता है, तो यह न केवल पीड़ित के साथ अन्याय है, बल्कि पूरे न्याय व्यवस्था की आत्मा को कलंकित करता है।

समाधान: न्यायपालिका में पारदर्शिता और ‘जजों की जवाबदेही कानून’ लाना समय की मांग है। साथ ही, झूठे या पक्षपाती निर्णयों की न्यायिक समीक्षा होनी चाहिए।

4. मीडिया: जब सत्य का प्रहरी, झूठ का व्यापारी बन जाए

मीडिया लोकतंत्र का चौथा स्तंभ है, और उसका कर्तव्य है – सत्य को सामने लाना, जनता को सूचित करना और व्यवस्था को आईना दिखाना। परंतु वर्तमान दौर में "ट्रायल बाय मीडिया", "ब्रेकिंग न्यूज़ की होड़", और "एजेंडा आधारित रिपोर्टिंग" ने पत्रकारिता को गंभीर संकट में डाल दिया है।

कई चैनल और पोर्टल टीआरपी के लिए झूठी खबरें चलाते हैं, अधूरी जानकारी को सनसनी बना देते हैं, और निर्दोष व्यक्ति को मीडिया ट्रायल में अपराधी साबित कर देते हैं। इससे न केवल व्यक्ति की प्रतिष्ठा को नुकसान होता है, बल्कि उसकी न्यायिक प्रक्रिया भी प्रभावित हो जाती है।

समाधान: फेक न्यूज़ फैलाने, तथ्यहीन रिपोर्टिंग और कोर्ट केस पर टिप्पणी करने वाले पत्रकारों और संस्थानों पर मानहानि और दंडात्मक कार्यवाही होनी चाहिए। साथ ही, प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया को संवैधानिक अधिकार देकर जवाबदेही तय करनी चाहिए।

5. जनता की भूमिका: अंधविश्वास नहीं, विवेक जरूरी

यह भी उतना ही महत्वपूर्ण है कि हम, देश के नागरिक, अंध-आस्थावान नहीं, विवेकशील बनें। हर आरोप को तुरंत सच मान लेना, हर मीडिया रिपोर्ट को अंतिम सत्य समझ लेना, और सोशल मीडिया पर झूठी जानकारी को वायरल करना — यह स्वयं हम न्याय के रास्ते में रोड़ा बनते हैं।

हमें यह समझना होगा कि किसी व्यक्ति को दोषी ठहराना न्यायालय का अधिकार है, जनता का नहीं। जब तक कोर्ट कोई फैसला न दे, तब तक किसी को भी अपराधी कहना संविधान के अनुच्छेद 21 (जीवन और स्वतंत्रता का अधिकार) का उल्लंघन है।

6. रामराज्य की कल्पना: आधुनिक व्यवस्था में उसकी प्रासंगिकता

रामराज्य का अर्थ एक ऐसी शासन प्रणाली से है जहाँ —

  • शासक खुद नियमों का पालन करता है
  • अपराधी चाहे कितना भी शक्तिशाली क्यों न हो, उसे दंड मिलता है
  • और आम नागरिक को सम्मान, सुरक्षा और न्याय सुनिश्चित होता है

हमारे संविधान ने भी ऐसी ही व्यवस्था का सपना देखा था — लेकिन जब पुलिस पक्षपाती हो जाए, वकील बिक जाएं, जज डर जाएं, और मीडिया भटका दे — तब आम नागरिक के लिए न्याय सिर्फ किताबों तक सीमित रह जाता है।

रामराज्य की वापसी तभी संभव है जब—

  • झूठे मुकदमे दर्ज करने पर FIR कर्ता को भी सजा मिले
  • झूठ बोलने वाले वकील का लाइसेंस रद्द हो
  • पक्षपात करने वाले जज की जांच हो
  • और झूठी खबर चलाने वाले मीडिया संस्थानों पर जुर्माना और प्रतिबंध लगे

7. संविधान की आत्मा और संस्थानों की भूमिका

भारतीय संविधान के निर्माणकर्ताओं ने एक ऐसी शासन व्यवस्था की कल्पना की थी, जिसमें सत्ता के तीनों स्तंभ – विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका – स्वतंत्र, निष्पक्ष और जवाबदेह हों। मीडिया को अनौपचारिक ‘चौथा स्तंभ’ माना गया, जो सत्ता और समाज के बीच पुल का काम करता है। लेकिन जब इन संस्थानों में से कोई भी अपना धर्म छोड़ दे — तो सबसे पहला और सबसे गहरा आघात न्याय पर होता है।

  • विधायिका जब कानूनों को इस तरह से बनाए कि वो आम आदमी से ज़्यादा राजनीतिक लाभ को साधे।
  • कार्यपालिका जब पुलिस और प्रशासन को सत्ता के इशारे पर चलाए।
  • न्यायपालिका जब फैसलों में जनता की बजाय उच्च वर्ग या सरकार को प्राथमिकता दे।
  • मीडिया जब निष्पक्षता छोड़कर एजेंडा और लाभ की भाषा बोले।

तब संविधान के अनुच्छेद 14 (समानता का अधिकार), अनुच्छेद 19 (अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता), और अनुच्छेद 21 (जीवन और स्वतंत्रता का अधिकार) — केवल कागज़ों में सिमट जाते हैं।

समाज और व्यवस्था दोनों को बचाने के लिए यह ज़रूरी है कि इन संस्थानों को एक बार फिर संविधान की मूल भावना से जोड़ा जाए।

8. गलत परंपराओं का अंत – एक न्यायिक सुधार आंदोलन की आवश्यकता

आज आवश्यकता है "न्यायिक सुधार आंदोलन" की — जो न केवल जनता को शिक्षित करे बल्कि व्यवस्था को जगाए। इस आंदोलन के कुछ प्रमुख बिंदु होने चाहिए:

  • FIR को जांच योग्य बनाने की प्रणाली: कोई भी FIR सीधे दर्ज न हो, पहले प्राथमिक जांच हो।
  • जमानत प्रक्रिया का मानकीकरण: आर्थिक और सामाजिक स्थिति देखकर जमानत मिले, न कि रसूख देखकर।
  • फास्ट ट्रैक कोर्ट: झूठे मुकदमों की जांच के लिए विशेष अदालतें जो 6 महीने में निर्णय दें।
  • पुलिस सुधार आयोग: जिसमें नागरिकों और न्यायाधीशों की भागीदारी हो।
  • मीडिया निगरानी प्राधिकरण: जो टीआरपी नहीं, सत्य की प्राथमिकता देखे।

जब तक यह सुधार नहीं होते, तब तक न्याय एक सपना रहेगा और झूठ एक व्यवसाय।

9. झूठ की कीमत — सिर्फ कानूनी नहीं, सामाजिक और मानवीय भी है

हम अक्सर यह भूल जाते हैं कि झूठे केस केवल अदालतों में नहीं लड़े जाते, वे मन, समाज और परिवार में लड़े जाते हैं। एक निर्दोष पर आरोप लगने के बाद:

  • उसके बच्चों को स्कूल में ताना झेलना पड़ता है
  • परिवार के रिश्तेदार दूरी बना लेते हैं
  • समाज उसे अपराधी मान लेता है, भले कोर्ट ने उसे बरी कर दिया हो
  • उसकी रोज़गार की संभावना समाप्त हो जाती है
  • उसका आत्मविश्वास, उसकी मानसिक शांति समाप्त हो जाती है

यह ‘सामाजिक सज़ा’ कई बार कानूनी सज़ा से भी ज़्यादा घातक होती है। इसका जवाबदेह कौन है?

10. रामराज्य – भावनात्मक आदर्श नहीं, व्यवहारिक आवश्यकता

कुछ लोग रामराज्य को केवल धार्मिक दृष्टि से देखते हैं, परंतु वास्तव में वह सुशासन, पारदर्शिता, और संवेदनशील प्रशासन का नाम है।

रामराज्य में राजा (शासक) सबसे पहले स्वयं को कानून के अधीन मानता है। सीता माता की अग्नि परीक्षा, लक्ष्मण का वनवास, या राम द्वारा स्वयं गद्दी छोड़ना — यह सब इस बात का प्रतीक है कि "न्याय पहले, व्यक्ति बाद में।"

आज यदि हमारा नेता या अधिकारी केवल दिखावे के लिए न्याय की बात करे, लेकिन व्यवहार में कानून को तोड़े — तो यह लोकतंत्र का अपमान है।

रामराज्य की भावना में यह स्पष्ट था कि –
"जनता की पीड़ा ही शासन की प्राथमिकता है।"
आज उस भावना की वापसी की आवश्यकता है, केवल भाषणों में नहीं, नीति और व्यवहार में।

11. नया नागरिक संकल्प – सिर्फ सरकार नहीं, समाज भी बदले

सभी दोष व्यवस्था के सिर मढ़ देने से भी हम बच नहीं सकते। आज जरूरत है:

  • नागरिकों के सचेत होने की
  • युवाओं के कानूनी जानकारी से लैस होने की
  • महिलाओं और बुजुर्गों की न्याय प्रणाली तक आसान पहुँच की
  • सामाजिक संगठनों द्वारा फर्जी मुकदमों के खिलाफ जनजागरण की

यह मत भूलिए – जिस समाज में झूठ बोलने वाला सुरक्षित महसूस करता है, वहां सत्य बोलने वाला डरता है। हमें इस संतुलन को उलट देना होगा।

12. अंततः – हम किस ओर जा रहे हैं? और कौन हमें बचाएगा?

जब हम एक ऐसे देश में पहुँच जाते हैं जहाँ:

  • दोषी खुलेआम सत्ता की गोद में बैठता है
  • निर्दोष वर्षों जेल में सड़ता है
  • न्याय विज्ञापन बन चुका होता है
  • और मीडिया झूठ को खबर बना देता है

तो फिर यह सवाल उठना लाजिमी है —
"क्या आजादी के 75 वर्षों बाद भी हम सच के लिए आजाद हैं?"

हमें अपनी आत्मा से पूछना होगा —
क्या यही वो हिंदुस्तान है, जिसके लिए भगत सिंह ने फांसी चूमी?
क्या यही वो समाज है जिसकी कल्पना गांधी, अंबेडकर और विवेकानंद ने की थी?

अगर जवाब 'नहीं' है, तो इस परिवर्तन की शुरुआत आज से और खुद से होनी चाहिए।

लोकतंत्र के चारों स्तंभों की जवाबदेही अनिवार्य क्यों है?

हिंदुस्तान एक लोकतांत्रिक गणराज्य है। इसका मतलब यह है कि सत्ता जनता से निकलती है, जनता के लिए काम करती है और जनता को ही जवाबदेह होती है। लेकिन जब लोकतंत्र के ये चार स्तंभ—कार्यपालिका (पुलिस और प्रशासन), विधायिका (नेता और संसद), न्यायपालिका (न्यायाधीश और न्यायालय) और मीडिया (प्रेस)—अपने मार्ग से भटकते हैं, तो आम जनता को सबसे अधिक कष्ट होता है। न्याय की तलाश में दर-दर भटकने वाला आम नागरिक यह सोचने को विवश हो जाता है कि क्या उसका देश वाकई "सच्चे लोकतंत्र" की राह पर है?

1. पुलिस तंत्र की भूमिका और उसका दुरुपयोग

आज भी हमारे देश में हजारों लोग ऐसे हैं जो झूठे केसों में फंसाए जाते हैं। कभी जातिगत द्वेष के कारण, कभी राजनीतिक साजिश के तहत, तो कभी किसी प्रभावशाली व्यक्ति के इशारे पर। पुलिस द्वारा बिना जांच-पड़ताल के किसी निर्दोष को हिरासत में लेना और उसका मानसिक, सामाजिक और आर्थिक शोषण करना भारतीय लोकतंत्र के चेहरे पर एक काला धब्बा है।

झारखंड, उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, दिल्ली जैसे कई राज्यों में ऐसे मामले बार-बार सामने आते हैं जहाँ पुलिस या तो भ्रष्टाचार के कारण झूठे केस बनाती है या फिर दबाव में आकर। यह स्थिति तब और भयावह हो जाती है जब यही पुलिस राजनीतिक नेताओं के हाथों की कठपुतली बन जाती है।

2. वकील – न्याय का वाहक या पक्षपाती दलाल?

भारतीय न्यायव्यवस्था में वकीलों को न्याय का सैनिक कहा जाता है। परंतु जब ये सैनिक न्याय नहीं, सिर्फ पैसा देखने लगें—तब समाज का पतन शुरू हो जाता है। झूठे केस को जानबूझकर लंबा खींचना, झूठे गवाह तैयार करना, और निर्दोष को फँसाकर आरोप सिद्ध कराना, यह सब वकालत के पेशे को कलंकित करता है।

न्याय का मतलब सच्चाई का साथ देना है, न कि फीस के हिसाब से पक्ष चुनना। जब तक हमारे वकील पेशेवर ईमानदारी नहीं बरतेंगे, तब तक कोई भी न्यायिक व्यवस्था पूर्ण नहीं हो सकती।

3. न्यायपालिका – जब जज भी नाइंसाफी करें

हमारे संविधान में न्यायपालिका को सबसे अधिक सम्मान दिया गया है। लेकिन जब वही जज—जो संविधान की रक्षा के लिए शपथ लेते हैं—पक्षपात करते हैं, तब आम नागरिक का भरोसा टूटता है।

ऐसे कई उदाहरण हैं जहाँ गरीब और कमजोर लोगों को न्याय के नाम पर सालों तक तारीख़ पे तारीख़ मिलती रही, लेकिन अमीर और रसूखदार लोग कानून से बच निकलते हैं। ज़मानत की सुविधा, फैसले में देरी, गवाहों को धमकाना या खरीदना, और ट्रायल में पक्षपात – ये सब इस बात के उदाहरण हैं कि कैसे कभी-कभी न्यायिक व्यवस्था भी भ्रष्टाचार की गिरफ्त में आ जाती है।

हम यह नहीं कह सकते कि पूरे न्यायिक तंत्र में गड़बड़ी है, लेकिन यह ज़रूर सच है कि अगर कोई जज न्याय न करके राजनीतिक या जातीय सोच से प्रभावित होकर फैसला देता है, तो वह हमारे संविधान के साथ विश्वासघात करता है।

4. मीडिया – जब चौथा स्तंभ गिर जाए

किसी भी लोकतंत्र में मीडिया की भूमिका प्रहरी की होती है। लेकिन जब मीडिया TRP और चाटुकारिता के दलदल में धँस जाए, तो वह समाज में ज़हर घोलने का काम करती है।

आज के समय में, मीडिया का एक बड़ा हिस्सा राजनीतिक दलों, उद्योगपतियों और शक्तिशाली व्यक्तियों का "PR टूल" बन चुका है। वे झूठी खबरें फैलाकर जनमत को भ्रमित करते हैं, निर्दोषों की छवि खराब करते हैं, और असली मुद्दों को ढँक देते हैं।

2015 से लेकर अब तक कई ऐसे मामले सामने आए जहाँ मीडिया ट्रायल के जरिए बिना किसी न्यायिक फैसले के लोगों को दोषी साबित कर दिया गया। ऐसा माहौल बन जाता है कि जब असल सच्चाई सामने आती है, तब तक व्यक्ति की सामाजिक हत्या हो चुकी होती है।

क्या यही रामराज्य है जिसकी कल्पना गांधी और हमारे ऋषियों ने की थी?

रामराज्य एक ऐसी व्यवस्था का प्रतीक है जहाँ न्याय सर्वोपरि हो, राजा (नेता) प्रजा के लिए समर्पित हो, और समाज में धर्म (कर्तव्य) के अनुसार आचरण हो। महात्मा गांधी ने भी रामराज्य की कल्पना एक आदर्श लोकतंत्र के रूप में की थी जहाँ सबको समान अधिकार और न्याय मिले।

लेकिन आज हम कहाँ हैं?

  • यहाँ पुलिस पैसे लेकर केस बनाती है,
  • वकील झूठ को सच बना देते हैं,
  • जज पक्षपात करते हैं,
  • और मीडिया सच्चाई को दबाकर टीआरपी बेचती है।

क्या यही है रामराज्य?

आगे का रास्ता – समाधान क्या है?

इस अंधकार को उजाले में बदलने के लिए हमें कुछ कठोर, लेकिन आवश्यक कदम उठाने होंगे:

1. पुलिस सुधार

  • FIR दर्ज करने की प्रक्रिया में पारदर्शिता,
  • CCTV अनिवार्य रूप से थानों में,
  • झूठे केस बनाने वाले पुलिस कर्मियों के लिए कड़ी सजा।

2. वकालत में नैतिकता

  • झूठे केस लड़ने वाले वकीलों की बार काउंसिल से सदस्यता रद्द हो,
  • न्यायिक ट्रेनिंग में नैतिक शिक्षा को शामिल किया जाए।

3. न्यायिक जवाबदेही विधेयक

  • न्यायाधीशों के फैसलों पर समीक्षा की व्यवस्था,
  • सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट जजों के खिलाफ शिकायतों की निष्पक्ष सुनवाई।

4. मीडिया रेगुलेशन और जवाबदेही

  • फेक न्यूज़ चलाने वाले चैनलों पर लाइसेंस रद्द करने की प्रक्रिया,
  • पत्रकारों के लिए आचार संहिता और उसका कड़ाई से पालन।

हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि हर बदलाव जनता से शुरू होता है। जब जनता सच को पहचानेगी, सच्चाई के लिए आवाज उठाएगी, और लोकतंत्र के हर स्तंभ से जवाबदेही मांगेगी—तब ही यह देश उस मार्ग पर बढ़ेगा, जिसकी कल्पना रामराज्य के रूप में की गई थी।

हमें याद रखना होगा, न्याय अगर बिकता है, तो देश की आत्मा मरती है। और जब देश की आत्मा मर जाए, तो कोई भी विकास, कोई भी तकनीक, कोई भी कानून — उस समाज को बचा नहीं सकता।

रामराज्य कोई असंभव आदर्श नहीं, बल्कि वह प्रेरणा है — जो हमें हर गलत के खिलाफ खड़ा होने का साहस देती है। जब तक झूठ को संस्थागत रूप से दंड नहीं मिलेगा, तब तक रामराज्य केवल स्मृति रहेगा, सच्चाई नहीं।

जो देश न्याय को पैसे और प्रभाव से तोलने लगे, वहाँ आम लोगों के लिये न्याय हासिल करना सिर्फ एक सपना बनकर रह जाती है। परन्तु हमें इसे बदलना होगा, हर हाल में बदलना होगा। हमें देश की आजादी के लिये ख़ुशी ख़ुशी फांसी पर लटकने वाले अपने पूर्वजों के बलिदान को निरर्थक होने से बचाना होगा।

रामराज्य सिर्फ एक कल्पना नहीं, बल्कि एक लक्ष्य है — जिसे हम सब मिलकर पाने के लिये हमें आज फिर वह क्रांति जलानी होगी, जो हमारे पूर्वजों ने अपनी कुर्बानी देकर हमारे लिये छोड़ गये थे। तभी हमारे पूर्वजों की आत्माओं को सच्चे अर्थों में शांति मिल पायेगी और देश के लिये उनका त्याग और बलिदान सार्थक कहला पायेगा।

लेखक परिचय:
अशोक कुमार झा
प्रधान संपादक – रांची दस्तक एवं PSA Live News
राष्ट्रीय सुरक्षा, सामाजिक नीति और मीडिया अनुशासन के विषयों पर विश्लेषणात्मक लेखन हेतु प्रसिद्ध।

 

जब न्याय का मान बढ़ेगा, तभी रामराज्य लौटेगा जब न्याय का मान बढ़ेगा, तभी रामराज्य लौटेगा Reviewed by PSA Live News on 8:43:00 am Rating: 5

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