✍️ लेखक : अशोक कुमार झा
संपादक, रांची दस्तक एवं PSA Live News
क्या विकास सिर्फ़ ‘वीआईपी गाँवों’ का अधिकार है?
झारखंड की राजनीति और सत्ता का एक अहम केंद्र रहा है नेमरा गाँव। यही वह जगह है जिसे झारखंड मुक्ति मोर्चा (झामुमो) का गढ़ कहा जाता है। यहीं से देश को ‘दिशोम गुरु’ शिबू सोरेन जैसे बड़े नेता मिले और यहीं तीन बार के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन का पैतृक गाँव स्थित है। लेकिन हाल ही में जो दृश्य नेमरा गाँव में देखने को मिला, उसने पूरे राज्य ही नहीं, बल्कि पूरे हिंदुस्तान में बहस को जन्म दे दिया है।
सिर्फ़ 10 दिनों में गाँव की सूरत बदल दी गई। धूल-कीचड़ से जूझता नेमरा अचानक सड़क, बिजली, रोशनी और वाई-फाई युक्त गाँव बन गया। अफसर रात-दिन लगे, ठेकेदारों ने रिकॉर्ड स्पीड दिखाई, फंड तुरंत उपलब्ध हो गया और सरकारी तंत्र ने यह साबित कर दिया कि अगर सरकार ठान ले तो विकास रातों-रात भी संभव है।
लेकिन इसके साथ ही यह सबसे बड़ा सवाल खड़ा करता है –
👉 क्या विकास सिर्फ़ नेमरा जैसे ‘विशेष गाँवों’ के लिए ही सुरक्षित है?
👉 क्या बाकी गाँवों को सड़क, बिजली, पानी और इंटरनेट के लिए वर्षों की प्रतीक्षा करनी होगी?
👉 क्या लोकतंत्र में आम जनता का अधिकार भी ‘पद’ और ‘पदवी’ पर टिका हुआ है?
नेमरा की रफ़्तार – बाकी गाँवों का इंतज़ार
नेमरा गाँव में अचानक सब कुछ बदल गया। जिन योजनाओं के लिए सामान्य परिस्थितियों में विभाग वर्षों की फाइलबाज़ी और टेंडर प्रक्रिया में उलझा रहता है, वह यहाँ हफ़्ते भर में पूरी हो गई। अफसरों ने रातभर काम किया, ठेकेदारों ने मशीनें झोंक दीं, बिजली के खंभे खड़े हो गए, सड़कें पक्की हो गईं और गाँव जगमगाने लगा।
लोगों की जुबान पर एक ही सवाल था –
👉 अगर नेमरा में 10 दिन में यह सब संभव है तो बाकी गाँवों में क्यों नहीं?
👉 क्या बाकी झारखंडी गाँव कमतर हैं?
झारखंड ही नहीं, पूरे हिंदुस्तान में ऐसे हज़ारों गाँव हैं जहाँ आज भी सड़क नहीं पहुँची, जहाँ बच्चे टॉर्च की रोशनी में पढ़ाई करते हैं, जहाँ गर्भवती महिलाएँ कंधों पर उठाकर कई किलोमीटर अस्पताल तक पहुँचाई जाती हैं। उन गाँवों में भी तो इंसान रहते हैं, वोट देते हैं, कर चुकाते हैं, फिर उन्हें यह सुविधाएँ क्यों नहीं मिलतीं?
VIP बनाम आम गाँव
हिंदुस्तान में यह समस्या नई नहीं है। जिस नेता या अफसर का गाँव होता है, वहाँ विकास का पहिया तेज़ घूमता है। वहीं आसपास के गाँवों की हालत जस की तस रहती है।
- बिहार के कई जिलों में देखा गया कि नेताओं के पैतृक गाँवों को ‘आदर्श गाँव’ बना दिया गया, जबकि बगल के गाँव गड्ढों और अंधेरे में डूबे रहे।
- उत्तर प्रदेश में कई पूर्व मुख्यमंत्रियों के गाँवों में हवाई चप्पल पहनने वाला भी पक्की सड़क पर चलता है, लेकिन ठीक पास के गाँव में कीचड़ और धूल से लोग त्रस्त रहते हैं।
- झारखंड में तो यह और भी स्पष्ट है। रांची से कुछ ही किलोमीटर दूर बसे गाँवों तक सड़क और बिजली नहीं पहुँची, लेकिन नेमरा जैसे गाँव 10 दिनों में हाईटेक बन जाते हैं।
यानी सवाल साफ़ है –
👉 क्या विकास का हक़ सिर्फ़ VIP गाँवों का है?
👉 क्या लोकतंत्र का मतलब सिर्फ़ ‘नेताओं का गाँव पहले’ है?
क्या बाकी जनता ‘कम झारखंडी’ है?
झारखंड की आत्मा उसके गाँवों में बसती है। यहाँ की पहचान ही जल, जंगल और ज़मीन से है। लेकिन आज भी 40% से अधिक गाँव मूलभूत सुविधाओं से वंचित हैं।
- हजारों गाँवों में सड़क नहीं है।
- बिजली काग़ज़ों पर पहुँची है, हकीकत में पोल और तार टूटे पड़े हैं।
- पीने का पानी हैंडपंप पर निर्भर है।
- इंटरनेट और डिजिटल सुविधा तो दूर की बात है।
नेमरा ने साबित कर दिया कि सरकार चाह ले तो एक गाँव को वाई-फाई युक्त बना सकती है। लेकिन यही सुविधा जब बाकी गाँव माँगते हैं तो कहा जाता है – “फंड की कमी है, प्रक्रिया लंबी है, योजना पेंडिंग है।”
तो क्या बाकी जनता झारखंडी नहीं? क्या उनके वोट की कीमत कम है? क्या उनका जन्म VIP घरानों में न होना ही उनकी सबसे बड़ी कमी है?
असली समस्या – नियत और प्राथमिकता
झारखंड में पैसे की कमी नहीं है। खनिज संपदा से भरपूर इस राज्य में हर साल अरबों का राजस्व आता है। केंद्र सरकार से भी योजनाओं के लिए भारी-भरकम फंड मिलता है। लेकिन ज़मीनी सच्चाई यह है कि:
- योजनाएँ काग़ज़ों में फँस जाती हैं।
- टेंडर प्रक्रिया सालों चलती रहती है।
- ठेकेदार और अफसर पैसे का खेल खेलते रहते हैं।
- गाँववाले इंतज़ार करते रहते हैं।
यानी समस्या पैसों की नहीं, नियत और प्राथमिकता की है।
नेमरा इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। यहाँ सरकार की प्राथमिकता बनी, अफसरों ने काम किया और 10 दिनों में चमत्कार हो गया। तो सवाल यह है कि बाकी गाँवों के लिए सरकार कब अपनी प्राथमिकता बदलेगी?
राजनीति बनाम जनता का हक़
हकीकत यह है कि हिंदुस्तान में विकास अब भी राजनीतिक समीकरणों और ‘पद’ पर निर्भर है। नेमरा में जो हुआ, वह जनता के हक़ से ज़्यादा राजनीतिक संदेश था।
- एक तरफ़ अफसर और मंत्री साबित करना चाहते थे कि वे “नेताओं का गाँव” तुरंत बदल सकते हैं।
- दूसरी तरफ़ इसका राजनीतिक लाभ भी साफ़ दिखता है – जनता को यह दिखाना कि “देखिए, हम काम कर रहे हैं।”
लेकिन जनता पूछ रही है –
👉 क्या विकास सिर्फ़ चुनावी पोस्टर का हिस्सा रहेगा?
👉 क्या आम आदमी को सड़क और रोशनी सिर्फ़ भाषणों में मिलेगी?
पूरे झारखंड को “नेमरा” क्यों नहीं?
झारखंड के 32,000 से अधिक गाँवों में अगर एक-एक नेमरा जैसी कहानी लिखी जाए, तो राज्य की तस्वीर बदल सकती है।
- सड़क हर गाँव तक पहुँचे।
- बिजली 24 घंटे उपलब्ध हो।
- इंटरनेट से बच्चा पढ़ सके, किसान मंडी से जुड़ सके।
- अस्पताल की सुविधा हर पंचायत में हो।
- स्कूल सिर्फ़ भवन नहीं, पढ़ाई देने वाले हों।
यह सब संभव है। नेमरा ने साबित कर दिया कि सरकार चाह ले तो हफ्ते-दस दिन में भी बदलाव संभव है। बस ज़रूरत है राजनीतिक इच्छाशक्ति की।
जनता की उम्मीद
झारखंड के लोग अब यही पूछ रहे हैं –
👉 क्या हमें भी VIP गाँव बनने के लिए किसी “दिशोम गुरु” की ज़रूरत है?
👉 क्या हमारे अधिकार भी किसी नेता की पैतृक ज़मीन से जुड़कर ही मिलेंगे?
👉 क्या लोकतंत्र का मतलब यही है कि आम जनता का विकास ‘काग़ज़ों’ पर हो और असली काम सिर्फ़ VIP इलाक़ों में?
जनता की उम्मीद साफ़ है –
अगर नेमरा में संभव है, तो बाकी गाँवों में भी होना चाहिए।
अगर वहाँ 10 दिनों में सड़क और वाई-फाई आ सकता है, तो बाकी गाँवों में सालों-साल क्यों लगते हैं?
नेमरा गाँव ने पूरे राज्य को एक आईना दिखाया है। यह साबित कर दिया है कि जहाँ सरकार चाहती है, वहाँ विकास संभव है।
लेकिन यह भी उजागर कर दिया है कि बाकी गाँवों की उपेक्षा केवल सरकार की प्राथमिकता और राजनीतिक खेल का हिस्सा है।
अब सवाल जनता का है –
👉 क्या झारखंड सरकार पूरे राज्य को “नेमरा” बनाएगी या फिर विकास सिर्फ़ नेताओं के गाँव तक सीमित रहेगा?
👉 क्या लोकतंत्र में हर नागरिक बराबर है या फिर गाँव भी ‘VIP बनाम आम’ में बाँटे जाएँगे?
झारखंड की जनता अब चुप नहीं बैठेगी। नेमरा ने उम्मीद भी जगाई है और सवाल भी खड़े किए हैं। अब सरकार को तय करना होगा कि वह इस चुनौती को स्वीकार करती है या फिर जनता को फिर से इंतज़ार के अंधेरे में छोड़ देती है।
✍️ लेखक : अशोक कुमार झा
संपादक, रांची दस्तक एवं PSA Live News

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