तीन दशक की यात्रा: लालटेन से LED तक, लेकिन क्या बदल पाया बिहार का भाग्य ?
(विशेष संपादकीय लेख — अशोक कुमार झा, संपादक, राँची दस्तक एवं PSA Live News)
बिहार की राजनीति — जहाँ सत्ता बदलती है, पर व्यवस्था वही रहती है
बिहार, जो हिंदुस्तान का वह राज्य है , जिसने राजनीति को दिशा दी, नेताओं को जननायक बनाया और जनता को उम्मीद और हताशा दोनों सिखाए । आज जब बिहार एक बार फिर चुनावी रणभूमि में उतरने जा रहा है, तो सवाल सिर्फ यह नहीं कि किसकी सरकार बनेगी, बल्कि यह भी कि क्या इस बार बिहार सचमुच बदलेगा?
1990 के दशक का बिहार और 2025 का बिहार — दोनों एक ही भूमि पर खड़े हैं, पर हालात, चेहरों और चुनौतियों में ज़मीन-आसमान का अंतर है। इस
बिहार में एक समय ऐसा भी था जब
लालू प्रसाद यादव के दौर
में “भूरा बाल साफ करो” जैसे नारे गूंजते थे, तब राजनीति जातीय संघर्ष और
सामाजिक पहचान का प्रतीक थी । पर आज वही बिहार जो विकास, रोज़गार और सुशासन की बात करता है — लेकिन यहाँ सवाल आज यह है
कि क्या यह बदलाव केवल नारों तक सीमित है, या जमीन पर भी कुछ बदला है?
1990 का बिहार –
लालटेन की रोशनी में अंधेरे
का युग
1990 का दशक बिहार की राजनीति का
सबसे निर्णायक काल था । जब लालू प्रसाद यादव ने समाज के वंचित वर्गों, पिछड़ों और दलितों को राजनीतिक मुख्यधारा में लाकर सामाजिक न्याय की
नई परिभाषा दी थी । लेकिन इस काल का दूसरा चेहरा भी उतना ही कठोर था —
भ्रष्टाचार, अपराध, अपहरण उद्योग, टूटी सड़कें, अंधेरी गलियाँ और चरमराती व्यवस्था।
शिक्षा की स्थिति
1990 के दशक में बिहार की शिक्षा
व्यवस्था पूरी तरह बिखरी हुई थी । स्कूलों में शिक्षक नहीं, कॉलेजों में क्लास नहीं, विश्वविद्यालयों में
परीक्षा का इंतज़ार वर्षों तक चलता था । पटना विश्वविद्यालय जो कभी पूर्वी भारत का
ऑक्सफोर्ड कहलाता था, वह कागज़ों में सीमित होकर रह गया था । गाँवों में
बच्चे मजदूरी करने लगे थे, युवाओं का सपना दिल्ली, मुंबई और पंजाब की ट्रेनों में सिमट गया था ।
स्वास्थ्य सेवाएँ
उस समय सरकारी स्वास्थ्य
व्यवस्था तब नाम मात्र की बची हुई थी । जिले के अस्पतालों में भी स्थिति यह थी कि दवा
नहीं, डॉक्टर नहीं, मशीनें कबाड़ में पड़ी रहती
थीं । उस समय मरीज इलाज के लिये या तो पटना मेडिकल कॉलेज तक जाते, या फिर मरने की प्रतीक्षा करते । ऐसे में जनता का विश्वास सिर्फ निजी
झोला-छाप डॉक्टरों पर था, न कि सरकारी डॉक्टरों पर ।
महिलाओं की स्थिति
महिलाओं की स्थिति उस समय सबसे
दयनीय थी । घरों तक सीमित, शिक्षा से वंचित, और सामाजिक निर्णयों से
बाहर — बिहार की महिला तब केवल “घरेलू जिम्मेदारी”
का प्रतीक मात्र रह गई थी, उसकी कोई स्वतंत्र पहचान नहीं होती थी।
यातायात और बुनियादी ढाँचा
उस समय बिहार की सड़कों पर
चलना जैसे बहुत बड़ी सज़ा हुआ करती थी । जर्जर सडकों के कारण एक जिले से दूसरे जिले
तक यात्रा करने में दिन लग जाते थे । ग्रामीण इलाकों में बिजली का नाम ही लोगों के
लिए एक सपना था । शाम होते ही पूरा गाँव अंधेरे में डूब जाता था और लालटेन ही
उम्मीद की आखिरी लौ हुआ करती थी ।
2005 के बाद —
‘सुशासन बाबू’ और बदलाव की शुरुआत
2005 में जब नीतीश कुमार ने
सत्ता संभाली, तो बिहार की जनता ने पहली बार यह महसूस किया कि
सरकार भी काम कर सकती है । उनके शासन ने अपराध पर नियंत्रण किया, सड़कों का जाल बिछाया और कानून-व्यवस्था को नई दिशा दी । “सात निश्चय योजना”,
“मुख्यमंत्री साइकिल योजना”, “बालिका प्रोत्साहन योजना” जैसी पहलें समाज के हर वर्ग
तक पहुँचीं ।
शिक्षा में सुधार
स्कूलों में शिक्षकों की
नियुक्ति, बालिकाओं को साइकिल, और स्कूल भवनों का निर्माण — इन सबने शिक्षा को जनांदोलन में बदला । जिसका परिणाम भी मिला कि आज
बिहार में प्राथमिक शिक्षा का प्रतिशत 1990 की तुलना में लगभग दोगुना हो गया है । हालाँकि उच्च शिक्षा अब भी
चुनौतियों से भरी हुई है , लेकिन कॉलेजों में लड़कियों की उपस्थिति ने समाज
की तस्वीर जरुर बदली है ।
स्वास्थ्य में सुधार
प्राथमिक स्वास्थ्य
केंद्रों में भी अब डॉक्टर हैं,
दवाएँ हैं, और इलाज भी सुलभ है। इसके साथ ही आयुष्मान भारत योजना ने गरीब
परिवारों को इलाज की बड़ी राहत दी है । फिर भी, आज भी गाँव के अस्पतालों
में संसाधनों की कमी है — जहाँ इलाज से पहले मरीज को यह सोचना पड़ता है कि “डॉक्टर मिलेगा भी या नहीं ।”
महिला सशक्तिकरण – एक नई क्रांति
नीतीश कुमार की नीतियों ने
महिलाओं के सशक्तिकरण में ऐतिहासिक भूमिका निभाई । 50% पंचायत आरक्षण, साइकिल योजना, शराबबंदी, और स्वयं सहायता समूहों ने
महिला को एक निर्णयकर्ता बनाया । जिसका नतीजा भी है कि आज बिहार की पंचायतों में
लाखों महिलाएँ जनप्रतिनिधि हैं । जो अब केवल रसोई नहीं संभालतीं, बल्कि गाँव का विकास, शिक्षा, जल और सड़क की नीतियाँ भी तय करती हैं । यह 90 के दशक के बिहार की कल्पना से परे था ।
यातायात और इंफ्रास्ट्रक्चर
अब बिहार में गाड़ियाँ सड़क
पर चलती हैं, सड़कें गाड़ियों पर नहीं । राष्ट्रीय राजमार्गों का
जाल, ग्रामीण सड़कों का विस्तार, और बिजली की स्थिर आपूर्ति ने आज के बिहार की एक नई तस्वीर बनाई है ।
बिजली का वह राज्य जो कभी लालटेन से चलता था, आज यहाँ सुदूर गाँव में भी LED जगमगा रहा है।
केंद्र की नीतियाँ और बिहार की दिशा
केंद्र की योजनाओं ने बिहार
के विकास को नई गति जरुर दी है, इसमें कहीं कोई शक नहीं है । प्रधानमंत्री आवास
योजना, उज्ज्वला योजना, हर घर नल योजना, पीएम किसान सम्मान निधि, और डिजिटल इंडिया जैसी
पहलों ने ग्रामीण जीवन में भी काफी कुछ बदलाव लाया है । इसके साथ ही रेलवे नेटवर्क
का विस्तार, एक्सप्रेसवे, और शिक्षा संस्थानों की
स्थापना से बिहार अब ‘बदलते भारत’ का हिस्सा भी दिखता है ।
लेकिन इन सबके बावजूद बिहार
के सामने सबसे बड़ा सवाल अब भी वही है — रोज़गार और उद्योग।
केंद्र की नीतियों ने दिशा जरुर
दी, पर राज्य सरकार को उन पर गति देनी होगी । क्योंकि जब
तक उद्योग नहीं आएंगे, तब तक पलायन नहीं रुकेगा, और जब तक पलायन नहीं रुकेगा, तब तक बिहार की आत्मा अधूरी
रहेगी।
अब की राजनीति – गठबंधन,
जनभावना और भविष्य की
चुनौती
2025 का चुनाव बिहार के लिए सिर्फ एक और सत्ता परिवर्तन नहीं है, यह एक जनमत संग्रह है —
तीन दशकों के विकास, ठहराव, और उम्मीदों पर ।
नीतीश कुमार – अनुभव बनाम विश्वास का संकट
नीतीश अब भी बिहार के सबसे
अनुभवी नेता हैं, लेकिन बार-बार गठबंधन बदलने से उनकी विश्वसनीयता
पर असर पड़ा है । उनका शासन प्रशासनिक तौर पर बेहतर जरुर है, पर राजनीतिक रूप से अस्थिर ।
तेजस्वी यादव – उम्मीद और अनिश्चितता
आज तेजस्वी युवाओं की आवाज़
जरुर हैं, पर लालू युग की छाया से बाहर निकलना उनके लिए सबसे
कठिन चुनौती है । वे रोजगार और शिक्षा को मुद्दा बना रहे हैं, पर जनता यह देखना चाहती है
कि क्या वे वादों से आगे जाकर नीति दे पाएंगे या नहीं ? अभी इसी बातों को लेकर
अपनी चिंतन शुरू कर दिया है ।
भाजपा –
संगठन की ताकत, चेहरे की कमी
जहाँ तक भाजपा का सवाल है
तो वह केंद्र की शक्ति और नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता पर सवार है , पर राज्य में कोई करिश्माई चेहरा उसके पास अब तक तैयार नहीं हो पाया है
। अगर कोई वैसा चेहरा तैयार भी होना चाहता है तो पार्टी की अंदरूनी नेतृत्व उसे
आगे नहीं आने देती है । ऐसे में भाजपा के लिए यह चुनाव केवल सत्ता नहीं, बल्कि राज्य में अपनी स्थायी नेतृत्व संरचना खड़ी करने का अवसर भी है ।
वैसे भाजपा के पास आज भी नितीश
मिश्रा जैसे लोग हैं , जो बिहार के ३ बार मुख्यमंत्री रहे डॉक्टर जगन्नाथ मिश्रा
के पुत्र होने के साथ साथ उनकी अपनी भी एक अलग लोकप्रियता बरक़रार है, जिसकारण वह
अपने क्षेत्र की जनता के दिलों में अपने पिता की तरह ही राज करते हैं । परन्तु
पार्टी के अंदरूनी नेतृत्व ऐसे चहरे को खुद ही आगे नहीं आने दे रहे क्योंकि बिहार
की राजनीति में जाति का समीकरण सभी पार्टियों पर हाबी है ।
जनता का मन —
बदलाव की इच्छा, लेकिन भरोसे की कमी
बिहार की जनता अब भावनाओं
से नहीं, परिणामों से सोचती है । क्योंकि वह जानती है कि
सड़कें तो बनी हैं, पर रोजगार का अभी भी आभाव है, जिसकारण पलायन जारी
है । स्कूल हैं, पर उसमें गुणवत्ता का आज भी आभाव है , जिसकारण लोग
आज भी अपने बच्चे को महँगी फ़ीस देकर निजी स्कूलों में पढ़ाने को बिबस हैं । अस्पताल
हैं , पर वहां संसाधन की कमी है । ऐसे में बिहार की जनता
अब चाहती है स्थायी परिवर्तन, न कि तात्कालिक राहत।
आज महिलाओं में यह भावना
अधिक है कि वे अब केवल मतदाता नहीं , बल्कि नीति की दिशा बदलने
वाली शक्ति हैं । इसलिये अब वह चाहती हैं कि शराबबंदी के साथ साथ रोजगार भी मिले
और शिक्षा के साथ साथ सुरक्षा भी ।
बिहार की असली लड़ाई अब विकास बनाम राजनीतिक यथास्थिति की है
तीन दशकों की यात्रा के बाद
बिहार ने बहुत कुछ बदला है — लालटेन से LED, गड्ढों से हाईवे,
डर से विश्वास, और बंद दफ्तरों से ऑनलाइन योजनाएँ । लेकिन अभी भी बिहार का युवा बाहर
काम करता है, किसान बाजार तक नहीं पहुँचता, और गाँवों की स्वास्थ्य सेवा शहरों पर निर्भर है ।
इसलिए इस बार सवाल यह नहीं
कि “कौन जीतेगा?” सवाल यह है कि कौन बिहार को अगले 25 वर्षों के लिए सही दिशा
देगा?
क्या जनता उस नेतृत्व को
चुनेगी जो जातीय दीवारों से ऊपर उठकर “विकास” को धर्म बनाए ?
या फिर राजनीति फिर उसी
पुरानी गिनती में उलझ जाएगी — जहाँ गणित जीतता है, पर जनता हारती है?
बिहार का भविष्य अब जाति या
गठबंधन नहीं, जनचेतना तय करेगी । क्योंकि अब जनता जान चुकी
है कि वोट से सिर्फ सरकार बनती है, पर विवेक से राज्य बनता है।

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