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राजनेताओं और सत्ता में बैठे तमाम महानुभाव मीडिया और पत्रकारों को पालतू बनाने को जरूरी मानते हैं ?

 पत्रकारिता में मुझे एक नेता की एक बात याद है उन्होंने पत्रकारिता पर एक बात कही "वह आदमी जो लिखता है, जो महीने-दर-महीने, हफ्ते-दर-हफ्ते, दिन-रात असबाब जुटाकर लोगों के विचारों को शक्लो-सूरत देता है, दरअसल वही आदमी है जो किसी अन्य व्यक्ति की बनिस्पत, लोगों के व्यक्तित्व या सिफत को तय करता है और साथ-साथ यह भी, कि वे किस तरह के निजाम के काबिल है."



असल में पत्रकारिता यानि जिसे आप  चौथा खंभा कहते है और इसका पूर्ण विवरण पत्रकारिता, प्रेस और समाचार को कहा जाता है। चौथा खंभा शब्द वकालत की स्पष्ट क्षमता और राजनीतिक मुद्दों को तैयार करने की निहित क्षमता दोनों में प्रेस और समाचार मीडिया है। हालांकि इसे औपचारिक रूप से राजनीतिक व्यवस्था के हिस्से के रूप में पहचाना नहीं गया है, लेकिन यह महत्वपूर्ण अप्रत्यक्ष सामाजिक प्रभाव को नियंत्रित करता है। चौथी खंभा शब्द का व्युत्पन्न क्षेत्र के तीन खंभाओं की परंपरागत यूरोपीय अवधारणा से उत्पन्न होता है: पादरी, कुलीनता, और आम लोग। बराबर अवधि चौथी शक्ति अंग्रेजी में कुछ असामान्य है, लेकिन कई यूरोपीय भाषाओं में सरकार में विधायिका, कार्यकारी और न्यायपालिका में शक्तियों को अलग करने का जिक्र है। चौथा खंभा एक सामाजिक शक्ति, बल या संस्थान है जिसका प्रभाव लगातार या आधिकारिक रूप से मान्यता प्राप्त नहीं है। 'चौथा खंभा ' आमतौर पर समाचार मीडिया, पत्रकारिता या 'प्रेस' को संदर्भित करता है।  इसके साथ लोगों के प्रहरी होने की जिम्मेदारी भी निभाता है। हालांकि, पारंपरिक अखबार को पाठक सिकुड़ जाने का खतरा है। टेलीविजन का अर्थ मनोरंजन पर केंद्रित है, यहां तक ​​कि जब वह इसे "समाचार" के रूप में तैयार करता है। रेडियो को कृत्रिम उपग्रह से खतरा है। सभी का सामना इंटरनेट द्वारा सक्षम घर्षण रहित वितरण, डिजिटल सूचना के विघटनकारी प्रभावों से होता है। किसी ने भी एक व्यवसाय मॉडल का पता नहीं लगाया है जो आज की दरों पर सामग्री का भुगतान करता है। लेकिन कुछ के पास खोजी पत्रकारिता के कार्य करने के लिए समय या संसाधन नही हैं।


अब ऐसे में पत्रकारिता व्यवसाय में तब्दील हो गयी है और पत्रकार अपने मूल उद्देश्यों से भटक गया है ऐसे पत्रकार टीवी माध्यम के प्राइमटाइम एंकर, अखबार के संपादक या बीट रिपोर्टर में से कोई भी हो सकते हैं. समूचे इतिहास में राजनेताओं और सत्ता में बैठे तमाम महानुभाव मीडिया और पत्रकारों को पालतू बनाने को जरूरी मानते आए हैं क्योंकि उनके पास वह ताकत है जिसकी शिनाख्त रूजवेल्ट ने अपने कथन में की थी. कुछ देशों में, अन्य देशों के मुकाबले राजनेता — मीडिया और पत्रकारों को वश में रखने में ज्यादा कामयाब रहे हैं. लेकिन सत्ता पर काबिज एक शक्तिशाली व्यक्ति किसी पत्रकार को किस हद तक वश में कर सकता है, यह बात बहुत हद तक उस पत्रकार विशेष पर भी निर्भर करती है। 


वैसे तो पत्रकारिता का हमारा पेशा हमसे असमान्य मेहनत की मांग करता है। इस पेशे में तमाम किस्म के मुद्दों पर गहरी समझ की दरकार होती है और साथ-साथ फौरन से पेशतर फैसले लेने की क्षमता चूंकि पत्रकारों को समाज के ताकतवर तबकों के दबाव और रोष का भी लगभग सामना करना पड़ सकता है, इसलिए किसी खबर पर काम करने के सभी चरणों के दौरान आपमें ऐसी स्थितियों से निपटने का कौशल और रणनीति होना भी जरूरी है। कहानी के छपने से पहले और छपने के बाद भी दुशवारियों से भरे इस पेशे में आपको स्व-रक्षा कवच भी विकसित करने होंगे. इन कवचों को जंग लगने से बचाने और कारगर बनाए रखने के लिए समय-समय पर उनकी साफ-सफाई और देखरेख भी जरूरी है.


निसंदेह, ताकतवरों को सच का आइना दिखाने से रोकने के लिए, लोग अपने आजमाए नुस्खों की मदद से आपको इस कवच से ही लैस नहीं होने देना चाहेंगे. एक संपादक किसी न्यूज स्टोरी के विचार को टेबल पर रखते ही उसका ‘कत्ल’ कर सकता है. एक अखबार का मालिक अपने न्यूजरूम में ‘वर्जित क्षेत्रों’ की सूची तय कर सकता है. यह सब बाहरी कारक हैं लेकिन, पिछले कुछ समय से मैं बतौर संपादक होनहार पत्रकारों पर मनोवैज्ञानिक दबाव बनाने के लिए इन नकारात्मक ताकतों को पहले से ज्यादा चालाकी  से काम करते देख रहा हूं। ?


यह कैसे काम करता है? कोई भी पेशेवर ईमानदारी से यह दावा नहीं कर सकता कि उसे पत्रकारिता का पर्याप्त अनुभव हो गया है।  और उसे अब अपने जीवन में कुछ सीखने की दरकार नहीं जबकि सीखने-सिखाने का सिलसिला ता-उम्र चलता रहता है. लेकिन हमारे देश में न्यूजरूम पर काबिज राजनीतिक और बौद्धिक रूप से रसूखदार लोगों या हमारे वरिष्ठ साथियों द्वारा नौजवान पत्रकार के विकास पर रोड़े अकटकाने और निष्क्रिय बनाने की कवायद अविराम चलती रहती है. इस काम को कदाचित बेहद मामूली उपलब्धियों पर तारीफ़ों के पुल बांधकर अंजाम दिया जाता है।  जैसे, जब-तब उम्दा संपादक, उम्दा रिपोर्टर और उम्दा पत्रकार के तमग़े चस्पाँ करके।


किसी ध्यान आकर्षित करने वाला शीर्षक देने पर तारीफ़ें पाने के नशे में मैंने कई उप-संपादकों को आत्मतुष्ट होते और खरामा-खरामा जंग खाते देखा है. इस तरह की बेजा तारीफें किसी नौसिखिए पत्रकार के लिए, इस पेशे के अन्य पहलुओं को सीखने-समझने में अवरोध पैदा करती हैं. इस इकलौती प्रतिभा बल पर जब आप पर अन्य जिम्मेवरियां निभाने का समय आता है, तो आप उनके साथ न्याय नहीं कर पाते. कई बार तो खोजी पत्रकारिता के अत्यंत महत्वपूर्ण खुलासे ही इस नाकाबलियत के चलते ठंडे बक्से में डाल दिए जाते हैं, या, तथ्यों को इस कदर तोड़-मरोड़ पेश किया जाता है कि कहानी वैसे ही दम तोड़कर बे-असर हो जाती है. खोजी पत्रकारिता या उसकी अगुवाई करने में अनुभव की कमी होने के बावजूद भी, अगर आप केवल भाषा पर अपनी महारत की बदौलत इतराते घूमेंगे तो आपको कभी अपनी कमी या ख़ामी समझ नहीं आएगी। 


पत्रकारों को एक साथ पांच तत्वों पर काम करना चाहिए, ताकि वे विकार, अप्रासंगिकता और बेकार काम का शिकार ना बनें. यह पांच तत्व हैं: खबर को सूंघने की शक्ति, दुरुस्त मूल्यांकन, नैतिक साहस, विषय पर पकड़ और लिखने का कौशल. आपकी सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि आप अपने पूरे कार्य जीवनकाल में खुद को पत्रकारिता के  पांच तत्वों में निपुणता पाने के लिए किस हद तक धकेल सकते हैं।


राजनेताओं और सत्ता में बैठे तमाम महानुभाव मीडिया और पत्रकारों को पालतू बनाने को जरूरी मानते हैं ? राजनेताओं और सत्ता में बैठे तमाम महानुभाव मीडिया और पत्रकारों को पालतू बनाने को जरूरी मानते हैं ? Reviewed by PSA Live News on 11:46:00 pm Rating: 5

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