✍ अशोक कुमार झा | प्रधान संपादक, रांची दस्तक व PSA Live News
"हम युद्ध के पक्षधर नहीं,
लेकिन यदि ललकारा गया तो समूल उत्तर
देंगे। हमारी नीति संयम की है,
किंतु हमारी क्षमता संपूर्ण है।"
– अटल बिहारी वाजपेयी, पोखरण-2 के बाद
हर बार जब हिंदुस्तान और पाकिस्तान के बीच तनाव बढ़ता है, जब चीन सीमा पर आंख दिखाता है, या जब कोई आतंकवादी हमला हमारी राष्ट्रीय सुरक्षा को ललकारता है तब ‘No First Use’ (NFU) नीति पर बहस तेज हो जाती है। यह सिर्फ एक सैन्य नीति नहीं, बल्कि एक वैचारिक दिशा है, जो हिंदुस्तान के राष्ट्र-निर्माण के मूल्यों से जुड़ी है — शांति, संयम और संतुलन।
आज जब रूस-यूक्रेन युद्ध, गाज़ा संकट, और दक्षिण चीन सागर
में सामरिक तनाव जैसे मुद्दों से विश्व व्यवस्था हिल रही है, ऐसे समय में
हिंदुस्तान की NFU नीति एक
स्थिरता का प्रतीक बन गई है।
NFU:
नीति की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
पोखरण
से नीति तक का सफर:
- 1974:
हिंदुस्तान का पहला शांतिपूर्ण
परमाणु परीक्षण – ‘Smiling Buddha’
- 1998:
अटल बिहारी वाजपेयी सरकार द्वारा
पोखरण-2 परीक्षण
- 1999:
‘Draft Nuclear Doctrine’ सार्वजनिक
- 2003:
औपचारिक रूप से No First Use
सहित परमाणु नीति की घोषणा
इस नीति में चार प्रमुख बिंदु हैं:
- पहले परमाणु हमला नहीं
- जवाबी कार्रवाई –
पूर्ण और निर्णायक
- सामान्य हथियारों या जैविक-रासायनिक हथियारों के हमले पर
परमाणु विकल्प नहीं
- राजनीतिक नियंत्रण –
प्रधानमंत्री और राष्ट्रीय सुरक्षा
सलाहकार परिषद की अनुमति आवश्यक
क्या
वास्तव में NFU एक सैन्य कमजोरी है?
यह सवाल अक्सर खड़ा किया जाता है कि
क्या NFU नीति हमें सामरिक रूप से कमजोर बनाती है? इसका उत्तर ‘नहीं’ है।
हिंदुस्तान की परमाणु नीति ‘Credible
Minimum Deterrence’ (विश्वसनीय न्यूनतम प्रतिरोध) पर आधारित है, जिसका अर्थ है कि
हमारी ताकत इतनी होनी चाहिए कि कोई शत्रु पहले हमला करने का साहस न कर सके।
NFU नीति के बावजूद हिंदुस्तान ने परमाणु त्रिक (Nuclear Triad) विकसित
कर लिया है:
- भूमि आधारित मिसाइलें: अग्नि
सीरीज़ (I से V तक)
- वायु आधारित क्षमता: सुखोई-30MKI व
Mirage-2000 से परमाणु लेस बमवर्षण
- समुद्री प्लेटफॉर्म:
INS Arihant जैसे परमाणु पनडुब्बियाँ
इसका अर्थ है कि हिंदुस्तान किसी भी
परिस्थिति में जवाबी हमले की पूरी क्षमता रखता है।
पाकिस्तान: परमाणु हथियारों का 'पहले प्रयोग' का सिद्धांत
अनिश्चित
और आक्रामक रणनीति:
पाकिस्तान की परमाणु नीति में ‘No First Use’ का
कोई स्थान नहीं। उसकी सोच है कि यदि पारंपरिक युद्ध में हार की संभावना हो, तो वह परमाणु
हथियारों का पहले प्रयोग
कर सकता है।
पाकिस्तान की रणनीति है:
- Full Spectrum Deterrence
- Battlefield Nuclear Weapons (छोटे क्षेत्रीय परमाणु हथियार) – जैसे
‘नसर मिसाइल’
यह
रणनीति न सिर्फ क्षेत्रीय स्थिरता के लिए खतरनाक है, बल्कि यह पूरे दक्षिण एशिया को एक संभावित परमाणु संघर्ष के मुहाने पर ला सकती है। पाकिस्तान की यह नीति
दुनिया भर में चिंता का विषय बनी हुई है, क्योंकि
यह "न्यूक्लियर डिटरेंस" (परमाणु हथियारों के इस्तेमाल से
रोकथाम) के मूल सिद्धांत को कमज़ोर करती है।
क्या
NFU नीति में बदलाव होना चाहिए?
बीते वर्षों में कई रक्षाविदों व सैन्य
विशेषज्ञों ने सुझाव दिया है कि NFU नीति को लचीला बनाना चाहिए:
- 2016:
तत्कालीन रक्षा मंत्री मनोहर
पर्रिकर ने कहा – “NFU को सार्वजनिक रूप से घोषित क्यों करें?”
- 2019:
रक्षामंत्री राजनाथ सिंह का बयान – "अब भविष्य की नीति हालात पर निर्भर करेगी।"
- 2023-2025:
सामरिक हलकों में इस पर सतत मंथन
जारी है
परंतु नीति में बदलाव से हिंदुस्तान की अंतरराष्ट्रीय प्रतिष्ठा, जिम्मेदार
परमाणु राष्ट्र की छवि और क्षेत्रीय स्थिरता पर असर पड़ सकता है। अमेरिका,
रूस,
चीन जैसे देश NFU नीति को सार्वजनिक
रूप से नहीं अपनाते, लेकिन दुनिया हिंदुस्तान को एक नैतिक परमाणु शक्ति मानती है।
वैश्विक
परिप्रेक्ष्य में NFU: कितने देश इसे मानते हैं?
देश |
NFU
नीति |
वर्तमान
दृष्टिकोण |
हिंदुस्तान |
✅ |
पूरी तरह प्रतिबद्ध |
चीन |
✅ |
लेकिन अस्पष्टता बढ़ी है |
रूस |
❌ |
परमाणु हमला पहले संभव |
अमेरिका |
❌ |
सामरिक लचीलापन |
पाकिस्तान |
❌ |
First Use पर आधारित |
फ्रांस |
❌ |
परिस्थितिजन्य उपयोग |
NFU नीति को अपनाना वैश्विक सुरक्षा को स्थिरता देता है, लेकिन आज दुनिया की
बड़ी शक्तियाँ इसे सार्वजनिक रूप से स्वीकार नहीं करतीं। ऐसे में हिंदुस्तान का NFU नीति पर टिके रहना इस स्थिति में हिंदुस्तान की NFU नीति
अंतरराष्ट्रीय समुदाय में उसे एक जिम्मेदार, शांति-प्रिय और नैतिक नेतृत्व वाला राष्ट्र बनाती
है, जो परमाणु हथियारों को महज शक्ति प्रदर्शन का
औज़ार नहीं, बल्कि एक deterrent
(रोक) के रूप में देखता है।
भविष्य
की राह: संतुलन और सुधार
क्या
NFU नीति स्थायी रहनी चाहिए?
- यदि चीन या पाकिस्तान NFU
नीति को धोखा दें, तो
क्या हम पूर्व-निर्धारित प्रतिक्रिया देंगे?
- क्या आधुनिक युद्ध की जटिलता NFU नीति
को अप्रासंगिक बना रही है?
- क्या परमाणु हमले का निर्णय सिर्फ
प्रधानमंत्री के पास होना पर्याप्त है, या
सामूहिक सलाह प्रणाली होनी चाहिए?
इन सवालों पर रणनीतिक, राजनीतिक और
वैज्ञानिक हलकों में बहस ज़रूरी है। NFU
नीति एक स्थिर स्तंभ है, पर इसमें समयानुकूल संशोधन भी होना चाहिए।
शक्ति
का संयम ही असली शक्ति है
NFU नीति हिंदुस्तान के उस दर्शन का विस्तार है जो युद्ध को अंतिम
विकल्प मानता है। हमारी ताकत हमारी विनम्रता में है,
और हमारी नीति इस बात को साबित करती है।
"परमाणु हथियारों की असली शक्ति इनके प्रयोग में नहीं, बल्कि इनके प्रयोग न
करने के संकल्प में है।"
NFU नीति न केवल हमारे वर्तमान को सुरक्षा देती है, बल्कि भविष्य को भी
विवेकपूर्ण बनाती है। जब पूरी दुनिया संघर्ष और अविश्वास की राह पर है, तब हिंदुस्तान की यह
नीति शांति का एक सुनहरा आदर्श बन चुकी है।
NFU कोई कमजोरी नहीं, बल्कि हिंदुस्तान की रणनीतिक परिपक्वता और
नैतिक बल
का प्रतीक है। इस नीति के तहत
हिंदुस्तान ने दुनिया को यह दिखाया है कि शक्ति के साथ विवेक और जवाबदेही भी
आवश्यक है। हिंदुस्तान का लक्ष्य युद्ध नहीं, बल्कि ऐसा संतुलन है जो युद्ध को रोक
सके। यही 'No First Use' की आत्मा है।
लेकिन बदलते वैश्विक और क्षेत्रीय
परिदृश्य में इस नीति पर सतत पुनर्विचार की आवश्यकता है, ताकि हमारी रक्षा नीति यथार्थवादी भी
बनी रहे और शांति का मार्ग भी प्रशस्त करती रहे।
यह
सच है कि "हम शांति में विश्वास जरूर रखते हैं, लेकिन यदि युद्ध जबरदस्ती
हमारे ऊपर थोपा गया, तो उससे निपटने के लिए भी हम पूरी तरह से
तैयार
हैं" — यह कथन सिर्फ एक भाव नहीं, बल्कि हिंदुस्तान की सामरिक और नैतिक
नीति का सार है।

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