लेखक: अशोक कुमार झा, संपादक – Ranchi Dastak एवं PSA Live News
"पिताजी, आपने मेरे लिए किया ही क्या है?"
इस प्रश्न को आजकल अक्सर आधुनिक संतानों के मुख से सुनना आम हो गया है। भौतिक उपलब्धियों की अंधी दौड़ में लिप्त इस पीढ़ी के लिए घर, गाड़ी, बैंक बैलेंस ही 'कर्तव्य की परिभाषा' बनते जा रहे हैं। ऐसे समय में पितृत्व की गरिमा, त्याग और मौन संघर्ष की अनदेखी चिंता का विषय है। परन्तु एक घटना, एक कथा, इस भ्रम को चीरती है और हमें यह सोचने पर विवश करती है कि "क्या वाकई कोई पिता कभी अपने बच्चे के लिए कम करता है?"
कहानी नहीं, जीवन की परतें हैं यह
शरद राव—एक आदर्श शिक्षक, एक निस्वार्थ पिता, एक मौन तपस्वी। वे उन असंख्य भारतीय पिताओं का प्रतिनिधित्व करते हैं, जो खुद के सपनों को होम करके दूसरों के भविष्य को सजाते हैं। उनका बेटा, राहूल, आधुनिक सोच से प्रेरित, अपने पिता के 'असफल' होने की दुहाई देता है—क्योंकि वे अब तक किराये के मकान में रहते हैं, क्योंकि वे ट्यूशन से कमाई नहीं कर पैसे इकट्ठे नहीं कर सके, क्योंकि उनके पास कोई बंगला नहीं है।
परंतु वह यह भूल जाता है कि पिता का मूल्य केवल संपत्ति में नहीं, संस्कार और जीवनदर्शन में होता है। वह यह नहीं देख पाता कि किस प्रकार उसके पिता ने अपने छोटे-से वेतन में अपने भाई-बहनों की शादी, बेटी के विवाह, गांव की जमीन की कानूनी लड़ाई, और हजारों छात्रों के भविष्य को संवारने का बीड़ा उठाया।
पिता: वो तपस्वी, जो कभी श्रेय नहीं चाहता
राहूल जैसे तमाम बेटे यह समझने में असमर्थ हैं कि शिक्षक शरद राव जैसे लोग पैसा नहीं, प्रतिष्ठा, सच्चाई और चरित्र कमाते हैं। उन्होंने शिक्षा को सेवा माना, ज्ञान को दान, और गुरुत्व को धर्म।
इसका प्रमाण तब मिला जब राहूल की कंपनी के चेयरमैन स्वयं उनके चरणों में झुकते हैं—क्योंकि वह चेयरमैन, अतिश अग्रवाल, कभी शरद राव का कमजोर-सा छात्र था। जिसने जीवन में दिशा उन्हीं के मार्गदर्शन से पाई। यही नहीं, जब राहूल के विवाह में आर्थिक स्थिति बाधा बनती है, तो वही चेयरमैन शरद राव की गुरु दक्षिणा के रूप में घर, विवाहस्थल और संपूर्ण शादी की जिम्मेदारी उठाते हैं।
यह दृश्य राहूल के जीवन की आँखें खोल देता है। उसका भ्रम टूटता है। उसे समझ आता है कि उसके पिता नकदी वाले सफल नहीं, चरित्रवान सफल हैं।
"मुझे क्या मिला?" से "मुझे क्या मिला था!" तक का सफर
राहूल की तरह आज की संतानों को यह आत्मचिंतन करना चाहिए कि—
क्या हमारे पिताओं ने हमें सिर्फ बंगलों से नवाजा होता, लेकिन शिक्षा और चरित्र से नहीं, तो क्या हम आज यहां होते?
हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि पिताओं ने हमारे लिए अपना भोजन छोड़ा, अपने कपड़े फटे पहने, रातें नींद रहित काटीं, स्वयं का स्वास्थ्य त्यागा, लेकिन हमारी फीस, दवाइयां और सपनों में कमी नहीं आने दी।
पिता का "अस्तित्व" मूक होता है, परन्तु "अभाव" असहनीय
पिता वो दीवार है जो आँधी को रोकती है।
पिता वो धूप है जो छांव बनती है।
पिता वो पानी है जो खुद खौलकर भी बच्चों के लिए ठंडा रहता है।
वह शायद ‘आई लव यू’ नहीं कहता, लेकिन जब तुम बीमार होते हो तो सबसे पहले नींद उसी की उड़ती है। जब तुम असफल होते हो, तो वो चुपचाप अपनी जेबें टटोलता है कि तुम्हें दोबारा खड़ा कर सके।
इस पितृ दिवस पर कुछ ठहरें, कुछ सोचें
इस पितृ दिवस पर केवल व्हाट्सएप स्टेटस बदलना काफी नहीं है।
अपने पिता से पूछिए कि वे कैसे हैं? क्या उन्हें कुछ चाहिए?
उनके साथ कुछ पल बिताइए।
और सबसे जरूरी—कभी ये मत कहिए कि "आपने मेरे लिए किया ही क्या है?"
क्योंकि जो उन्होंने किया, वह शब्दों में नहीं, जीवन की गहराइयों में छिपा है।
एक अंतिम प्रार्थना
हे युवा मनोवृत्ति, पिता को पैसों के तराजू में मत तौलो।
उनकी थकान, उनकी चुप्पी, उनकी जेब, और उनका पुराना झोला—सब में छिपा है तुम्हारा वर्तमान।
जो उन्होंने ‘किया नहीं’ वह शायद किसी और के लिए किया, ताकि तुम गिरो नहीं।
और जो उन्होंने ‘किया’, वो शायद तुम्हें कभी दिखे नहीं, क्योंकि वे उसे दिखावा नहीं मानते।
पिता कोई भगवान नहीं होते, पर वो जीवन के सबसे ईमानदार और निःस्वार्थ देवता होते हैं।
पितृ देवो भवः।
(यह लेख पितृ दिवस की सच्ची श्रद्धांजलि है उन तमाम पिताओं के लिए, जिनका जीवन खुद मिटकर अपने बच्चों को संवारने का पर्याय है। कृपया इसे अधिक से अधिक लोगों तक पहुँचाएं और किसी एक बेटे को यह समझा सकें कि पिता का मोल कभी शब्दों से नहीं आँका जा सकता।)
PSA Live News विशेष प्रस्तुति – पितृ सम्मान में।

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