✍ अशोक कुमार झा, प्रधान संपादक, PSA Live News व 'रांची दस्तक'
फिर अशांत हुआ मणिपुर
एक बार फिर मणिपुर सुलग उठा है। एक साल पहले जहां जातीय हिंसा, सामाजिक दरारें और राजनीतिक असफलता ने इस खूबसूरत पूर्वोत्तर राज्य को लहूलुहान कर दिया था, वहीं अब फिर से हालात बद से बदतर होते दिख रहे हैं। पिछले कुछ हफ्तों में मणिपुर के कई जिलों में हिंसा, आगजनी, गोलीबारी और नागरिकों के पलायन की घटनाएं फिर से सामने आई हैं। सवाल है — क्यों नहीं थम रही यह आग? कौन जिम्मेदार है? और सबसे अहम — क्या केंद्र और राज्य सरकारों के पास कोई ठोस समाधान है?
1.
मणिपुर की आग का इतिहास: जहां चिंगारी
बनी ज्वाला
मणिपुर की जातीय संरचना बेहद जटिल है।
एक ओर बहुसंख्यक मीती
समुदाय है जो इंफाल घाटी में रहता है, वहीं दूसरी ओर कुकी
और नगा जैसे जनजातीय समुदाय पर्वतीय क्षेत्रों में निवास करते हैं। 2023 में
मणिपुर हाईकोर्ट के एक आदेश — जिसमें मीती समुदाय को अनुसूचित जनजाति (ST) का दर्जा देने की
सिफारिश की गई — ने जैसे राज्य की ज़मीन पर बारूद बिछा दी।
कुकी समुदाय ने इसे अपने अस्तित्व पर
हमला माना और फिर जो हुआ वह सबने देखा —
गांव जलाए गए, सैकड़ों लोगों की
जानें गईं, हजारों लोग बेघर हुए। महिलाओं के साथ बलात्कार और अपमान के
दृश्य ने पूरे देश की आत्मा को झकझोर दिया। हालांकि केंद्र सरकार ने फौज, अर्धसैनिक बल और
इंटरनेट बंदी जैसी तात्कालिक कदम उठाए,
लेकिन कोई स्थायी समाधान नहीं निकल
पाया।
2. आज का मणिपुर: फिर धधकती चिंगारियां
हाल के दिनों में फिर से चुराचांदपुर,
कांगपोकपी और मोइरांग जिलों में हिंसक घटनाएं सामने आई हैं। स्थानीय लोगों का कहना
है कि सरकार दोनों पक्षों के बीच निष्पक्ष नहीं है। कुकी समुदाय सरकार पर मीती पक्षधर
होने का आरोप लगा रहा है, जबकि मीती समूह
केंद्र से और कठोर कदम उठाने की मांग कर रहा है।
इसी बीच बड़ी संख्या में हथियारबंद
समूहों की गतिविधियां फिर से तेज हो गई हैं। सीमावर्ती क्षेत्रों में नारको-टेररिज्म
की आशंका जताई जा रही है — म्यांमार से हथियार
और नशा का व्यापार इस पूरे तनाव को और अधिक विस्फोटक बना रहा है।
3. जिम्मेदार कौन?
●
राज्य सरकार की विफलता:
मुख्यमंत्री एन. बीरेन सिंह की सरकार पर
दोनों पक्षों के विश्वास की कमी है। उन्होंने खुद कई बार स्वीकार किया कि “स्थिति हाथ से बाहर
हो चुकी है।” सवाल उठता है कि फिर वे पद पर क्यों बने हुए हैं? केंद्र सरकार के दबाव
में या कोई और राजनीतिक मजबूरी?
●
केंद्र सरकार की ढुलमुल नीति:
एक ओर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी मणिपुर
मुद्दे पर संसद में चुप्पी साधे रहते हैं,
वहीं दूसरी ओर गृहमंत्री अमित शाह की
यात्राएं और बयानों का कोई प्रभाव नहीं पड़ रहा। क्या पूर्वोत्तर की
आग केवल चुनावी मौसम में ध्यान देने योग्य होती है?
●
अराजक तत्वों और उग्रवादी संगठनों की
भूमिका:
NSCN-IM, KNA, PLA जैसे संगठनों ने इस हिंसा को हथियार बना लिया है। स्थानीय अपराधी
और म्यांमार के तत्व भी घुसपैठ कर हिंसा को बढ़ावा दे रहे हैं।
●
सोशल मीडिया और अफवाहें:
इंटरनेट पर फैलाई जा रही अफवाहें, भड़काऊ वीडियो, नकली खबरें और
सांप्रदायिक टिप्पणियां, लोगों को भड़काने का मुख्य जरिया बनी हुई हैं।
4.
समाधान क्या है?
1. एक निष्पक्ष शांति वार्ता:
केंद्र को तुरंत दोनों पक्षों — मीती और कुकी नेताओं — को बातचीत की मेज पर
बैठाना होगा। यह काम किसी भरोसेमंद पूर्वोत्तर विशेषज्ञ या पूर्व न्यायधीश की
देखरेख में होना चाहिए। बातचीत का पहला उद्देश्य हो — स्थायी
संघर्षविराम।
2. विशेष प्रशासनिक संरचना:
कुकी और मीती क्षेत्रों के लिए द्वैध प्रशासन
(dual administration) या विशेष स्वायत्तता
का ढांचा विकसित किया जा सकता है, जिससे दोनों समुदाय अपने-अपने क्षेत्र की प्रशासनिक
जिम्मेदारियों में भागीदार बन सकें।
3. हथियारों की बरामदगी और सीमाओं की निगरानी:
म्यांमार सीमा पर सख्त निगरानी, नार्को-ट्रेड रूट्स
पर रोक और हथियारबंद संगठनों की गतिविधियों पर प्रतिबंध जरूरी है। AFSPA
जैसे कानून को भी पुनः मूल्यांकन
की जरूरत है — इससे लोगों में डर और अविश्वास की भावना बढ़ी है।
4. नागरिक समाज और मीडिया की भूमिका:
स्थानीय बुद्धिजीवी, पत्रकार, महिला समूह, चर्च, मंदिर संस्थाएं — सभी को मिलकर इस
सामाजिक विभाजन को पाटने का प्रयास करना होगा। मीडिया को भड़काऊ रिपोर्टिंग से
बचते हुए केवल सत्य और समाधान पर आधारित पत्रकारिता करनी चाहिए।
5. दीर्घकालिक विकास रणनीति:
पूर्वोत्तर को सिर्फ “संवेदनशील क्षेत्र” मानकर छोड़ देने की
बजाय, उसे राष्ट्रीय मुख्यधारा में सम्मानपूर्वक शामिल करने की जरूरत है। शिक्षा,
रोजगार,
कनेक्टिविटी, उद्योग और संस्कृति — इन सभी क्षेत्रों में
लंबी अवधि की रणनीति आवश्यक है।
5. देश की चुप्पी खतरनाक है
मणिपुर की हालत कश्मीर से कम नहीं है, पर राष्ट्रीय मीडिया
और सत्ताधारी दलों की चुप्पी हैरान करती है। क्या एक राज्य के जलने पर सिर्फ ‘राजनीतिक चश्मा’ लगाकर देखा जाएगा? जब तक मणिपुर को
हिंदुस्तान की संप्रभुता और सामाजिक एकता के मूलभूत अंग की तरह नहीं माना जाएगा, तब तक यह आग बुझने
वाली नहीं।
6. मणिपुर
संकट और भारत की विदेश नीति: म्यांमार और चीन का छुपा खेल
मणिपुर
की आंतरिक आग में अंतरराष्ट्रीय राजनीति की हवाएं भी घी का काम कर रही हैं। मणिपुर
की सीमा म्यांमार से सटी है और वहां का हाल खुद पूरी तरह बेकाबू है। म्यांमार में
जारी सैन्य तानाशाही और गृहयुद्ध के कारण बड़ी संख्या में शरणार्थी, उग्रवादी और ड्रग सिंडिकेट्स भारत की
सीमाओं में घुस रहे हैं।
चीन
की ‘नरम
घुसपैठ’:
सूत्र
बताते हैं कि PLA
(People’s Liberation Army of Manipur) जैसे विद्रोही संगठनों को म्यांमार की सीमा से ड्रोन, संचार उपकरण, आधुनिक हथियार मिल रहे हैं — जिनके पीछे चीन की खुफिया एजेंसियों का
परोक्ष सहयोग हो सकता है। यह सीधे-सीधे भारत की आंतरिक सुरक्षा पर आक्रमण है।
आवश्यक
रणनीति:
·
म्यांमार
से लगी अंतरराष्ट्रीय सीमा को सील करना होगा।
·
“Free
Movement Regime (FMR)” की
समीक्षा करनी होगी, जिसमें
सीमा पार के लोगों को 16 किलोमीटर
तक आने-जाने की छूट है।
·
मणिपुर
और मिजोरम में एक संयुक्त विशेष टास्क
फोर्स बनाकर अंतरराष्ट्रीय साजिशों को नाकाम करना होगा।
7. महिलाओं
पर अत्याचार: मणिपुर की पीड़ा का सबसे वीभत्स चेहरा
मणिपुर
की हिंसा की सबसे शर्मनाक तस्वीरें उन महिलाओं की हैं जिन्हें नग्न कर घुमाया गया,
सामूहिक बलात्कार का शिकार बनाया गया और
फिर सोशल मीडिया पर अपमानित किया गया।
इन
घटनाओं ने न सिर्फ मणिपुर बल्कि पूरे भारत की संवेदनशीलता,
कानून व्यवस्था और
सामाजिक चेतना पर सवाल खड़े कर दिए हैं।
आज
की स्थिति:
·
अधिकांश
पीड़ित महिलाओं को न तो सुरक्षा मिली है, न न्याय।
·
स्थानीय
प्रशासन और पुलिस पर पक्षपात के गंभीर आरोप लगे हैं।
·
कई
केस में एफआईआर तक दर्ज नहीं हुई।
क्या
होना चाहिए:
·
सुप्रीम
कोर्ट की निगरानी में विशेष जांच टीम (SIT)।
·
सभी
महिला पीड़ितों को 'राष्ट्रीय
पीड़ित सहायता योजना' से
आर्थिक और मानसिक सहयोग।
·
सभी
आरोपियों की त्वरित गिरफ्तारी और फास्ट-ट्रैक कोर्ट में सुनवाई।
8. मणिपुर
और भारत की राजनीतिक खामोशी: क्यों डरते हैं नेता?
जब
राजस्थान में एक बच्ची से अपराध होता है, तो दिल्ली से लेकर लखनऊ तक राजनीतिक दल सड़कों पर उतर जाते
हैं। पर मणिपुर में सैकड़ों मौतों, बलात्कार,
विस्थापन और गृहयुद्ध जैसे हालात पर राष्ट्रीय स्तर पर
सन्नाटा क्यों
है?
कांग्रेस
और विपक्ष की भूमिका:
विपक्ष
ने संसद में मणिपुर मुद्दे पर सरकार से जवाब मांगा, परंतु सिर्फ राजनीति तक सीमित होकर असल
समस्या को उठाने में नाकाम रहा। उनका फोकस भाजपा विरोध पर अधिक और मणिपुर के पक्ष
में कम दिखा।
भाजपा
और केंद्र की भूमिका:
मोदी
सरकार ने मणिपुर को केवल “कानून
व्यवस्था का राज्य विषय” कहकर
अपने हाथ झाड़े। लेकिन क्या जब संविधान जल रहा हो, तब केवल राज्यों की जवाबदेही कहना
राष्ट्रद्रोह के बराबर नहीं?
9. मणिपुर
के बच्चे: एक खोया हुआ भविष्य
अभी
मणिपुर में 300
से अधिक राहत शिविर चल रहे हैं, जिनमें हजारों बच्चे बिना स्कूल,
पोषण और सुरक्षा के रह रहे हैं।
इसका
असर:
·
पीढ़ियों
तक चलने वाला मनोवैज्ञानिक और सामाजिक आघात।
·
युवा
आबादी हथियारों की ओर झुक सकती है।
·
मणिपुर
का “मानव संसाधन” धीरे-धीरे आतंकवाद और नशे की ओर खिंच
सकता है।
क्या
करना होगा:
·
केंद्र
सरकार को “पूर्वोत्तर बाल सुरक्षा योजना”
के तहत विशेष शिक्षा, मनोचिकित्सकीय और पोषण कार्यक्रम शुरू
करना होगा।
·
मोबाइल
स्कूल, राहत कैंपों में
शिक्षा केंद्र, मोबाइल
हॉस्पिटल और हेल्थ कैम्प की व्यवस्था तुरंत हो।
10. क्या
मणिपुर को केंद्र शासित प्रदेश बनाया जाए?
एक
बड़ी बहस यह है कि क्या मणिपुर की स्थिति को देखते हुए वहां राष्ट्रपति
शासन लगाया जाए? क्या
एक निष्पक्ष प्रशासनिक
तंत्र ही
वहां स्थिरता ला सकता है?
पक्ष
में तर्क:
·
राज्य
सरकार के प्रति दोनों समुदायों का विश्वास समाप्त हो गया है।
·
वर्तमान
प्रशासन हिंसा रोकने में पूर्णतः विफल।
विरोध
में तर्क:
·
इससे
संवैधानिक असंतुलन और संघीय ढांचे पर प्रहार हो सकता है।
·
पूर्वोत्तर
में और अधिक अलगाववाद को बल मिल सकता है।
इसलिए,
एक
निष्पक्ष गवर्नर और केंद्र-राज्य संयुक्त प्रशासनिक प्रणाली (जैसे कि ‘राज्य पुनर्निर्माण प्राधिकरण’) एक बीच का रास्ता हो सकता है।
11. मणिपुर:
भारत का आत्मपरिक्षण
मणिपुर
एक चेतावनी है — अगर
हमने समय रहते न सुना, न
समझा, तो कल यही आग मिजोरम,
नगालैंड, त्रिपुरा और फिर असम तक फैल सकती है। जब
तक हम देश के हर कोने को एक समान संवेदनशीलता, सम्मान और सुरक्षा नहीं देंगे, तब तक ‘एक भारत, श्रेष्ठ भारत’ का नारा खोखला रहेगा।
अब देर नहीं, निर्णय चाहिए
मणिपुर
अब केवल मणिपुर नहीं है, यह हिंदुस्तान के भविष्य
की प्रयोगशाला बन गया है। अगर वहां के लोग डर, असुरक्षा और विभाजन में जीते रहेंगे,
तो राष्ट्रीय एकता केवल संविधान की
किताबों में रह जाएगी। वहां के जख्मों को हम कब तक अनदेखा करते
रहेंगे? मणिपुर के बच्चों को
क्या यही भविष्य देना है — गोलियों
की आवाज, सायरन की चीखें और
गली में जलते घर?
आज हम सभी को तय करना
है कि क्या हम मणिपुर को उसके हाल पर छोड़
देंगे?
या राष्ट्र के हर नागरिक की तरह उसे भी
गले लगाएंगे? अब
वक्त आ गया है कि हम यानि
सरकार, मीडिया, आम जनता और न्यायपालिका — सभी को मिलकर मणिपुर को फिर से ‘भारत का मुकुट’ बनाने की दिशा में सोचकर आगे आना होगा ,
ना कि ‘जलता हुआ इलाका’।

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