(लेखक: अशोक कुमार झा, संपादक - PSA Live News और रांची दस्तक)
जब
अपराध और व्यवस्था की सीमाएं धुंधली हो जाएं
बिहार का पूर्णिया जिला इन दिनों सुर्खियों में है — लेकिन किसी विकास परियोजना या सामाजिक बदलाव के कारण नहीं, बल्कि एक चौंकाने वाले और शर्मनाक अपराध के कारण। एक युवक ने फर्जी थाना खोलकर न सिर्फ खुद को अधिकारी घोषित कर दिया, बल्कि 500 से अधिक युवाओं को सरकारी नौकरी का सपना दिखाकर उनसे लाखों की ठगी की। इन युवाओं को बाकायदा वर्दी पहनाकर सड़क पर गश्ती करवाई गई, फर्जी चालान कटवाए गए, और सिस्टम की नाक के नीचे अपराध का पूरा प्रशासनिक ढांचा खड़ा कर दिया गया।
यह घटना न सिर्फ बिहार की बेरोजगारी की त्रासदी को सामने लाती है, बल्कि यह भी सिद्ध
करती है कि हमारे प्रशासनिक तंत्र में कितनी दरारें हैं — इतनी कि एक युवक एक
पूरा थाना, एक पुलिस बल और एक नकली कानून-व्यवस्था तैयार कर लेता है और
महीनों तक प्रशासन को इसकी भनक तक नहीं लगती।
फर्जी
थाना: सिर्फ एक मामला या पूरे सिस्टम की पोल?
यह घटना किसी हास्य फिल्म की पटकथा नहीं
है, यह वास्तविकता है। नेमा टोल,
कसबा नगर परिषद में रहने वाले राहुल
कुमार साह नामक युवक ने खुद को ग्राम रक्षा दल का अधिकारी बताकर बेरोजगार युवाओं
को झांसे में लिया। नौकरी देने के नाम पर 10-10
हजार रुपए वसूले, कर्ज पर पैसे जमा
कराए, वर्दियां सिलवाई,
फर्जी आईडी कार्ड दिए और चालान की
रसीदें तक छपवाईं।
वह अकेला नहीं था — यह सुनियोजित ठगी थी
जिसमें कई सहयोगी, कागज बनाने वाले,
वर्दी सिलने वाले, और संभवतः कुछ स्थानीय असरदार लोगों का संरक्षण भी शामिल था। अगर यह
कोई एक बार की घटना होती तो इसे अपवाद कहा जा सकता था, लेकिन बिहार जैसे
राज्य में पहले भी फर्जी पुलिस,
फर्जी दरोगा, फर्जी
भर्ती और फर्जी अधिकारियों
के मामले सामने आते रहे हैं।
बेरोजगारी:
अपराध की सबसे बड़ी प्रयोगशाला
इस पूरे प्रकरण में सबसे दुखद पहलू यह
है कि 500 से अधिक युवक-युवतियां,
जिनमें कई उच्च शिक्षा प्राप्त थे, इस जाल में फंस गए।
वे इस हद तक विश्वास कर बैठे कि एक दिन वे सरकारी मुलाजिम बन जाएंगे। कुछ ने कर्ज
लिया, कुछ ने गहने गिरवी रखे और कुछ ने खेती-बारी बेच दी।
यह घटनाक्रम इस बात का प्रमाण है कि बेरोजगारी अब सिर्फ सामाजिक या आर्थिक संकट नहीं है, यह राष्ट्रीय सुरक्षा का प्रश्न बन गया है। जब
नौजवानों को रोजगार नहीं मिलेगा, वे या तो
अपराध में शामिल हो जाएंगे या अपराध का
शिकार बन जाएंगे।
प्रशासन और पुलिस: आंखों पर पट्टी या मिलीभगत?
सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या प्रशासन
और पुलिस को वाकई कुछ पता नहीं चला था?
क्या कस्बे में गश्ती करने वाले 500 वर्दीधारी
युवक-युवतियों की मौजूदगी किसी पुलिस अधिकारी या स्थानीय प्रशासनिक इकाई को नजर
नहीं आई?
अगर यह अज्ञानता थी तो यह आपराधिक लापरवाही है। और अगर यह
मिलीभगत थी तो यह सुनियोजित प्रशासनिक अपराध है। किसी भी
परिस्थिति में यह पुलिस और जिला प्रशासन की विफलता का जीवंत प्रमाण है।
थानाध्यक्ष अजय कुमार अजनवी ने बताया कि
पीड़ितों की शिकायत पर जांच शुरू की गई है। लेकिन सवाल यह है कि जांच शुरू होने से
पहले ये सब कैसे चलता रहा?
समाज
के लिए एक चेतावनी: भरोसे और कानून की चूक
जब समाज के युवा यह मानने लगें कि किसी भी वर्दीधारी पर भरोसा नहीं किया जा सकता, जब माता-पिता अपने
बच्चों को वर्दी पहनते देख
गर्व नहीं, संदेह से भर जाएं — तो समझिए व्यवस्था की जड़ें हिल चुकी हैं।
यह मामला सिर्फ ठगी नहीं है, यह सामाजिक ताने-बाने
में एक घातक वायरस की तरह है जो लोगों के बीच से भरोसे को खत्म कर देता है। यह लोकतंत्र के उस स्तंभ को खोखला करता है जिसे 'कानून का राज' कहते हैं।
राजनीति
और प्रशासन की चुप्पी क्यों?
इतनी बड़ी घटना सामने आने के बाद भी न
तो राज्य सरकार की ओर से कोई ठोस प्रतिक्रिया आई और न ही किसी प्रमुख राजनीतिक दल
ने इसे गंभीरता से लिया।
क्या यह सब कुछ इतना सामान्य हो गया है
कि ठगी, फर्जीवाड़ा और प्रशासनिक विफलता अब राजनीतिक विमर्श का हिस्सा
ही नहीं रहे?
अगर कोई सड़क खराब हो जाए तो नेता
दौड़ते हैं, लेकिन अगर 500 परिवार बर्बाद हो जाएं तो कोई बयान तक नहीं देता?
समाधान
क्या है?
1.
पुलिस सुधार और निगरानी
हर जिले में निगरानी प्रणाली को डिजिटल
किया जाए। थाना क्षेत्र में गश्ती दल,
सरकारी यूनिफॉर्म या ट्रैफिक चालान से
संबंधित सभी गतिविधियों की
पुष्टि ऑनलाइन पोर्टल पर सार्वजनिक रूप
से उपलब्ध होनी चाहिए।
2.
रोजगार के लिए मजबूत रणनीति
बेरोजगारी को सिर्फ भाषणों में नहीं, ज़मीन पर योजनाओं के
जरिए हल करना होगा। स्थानीय स्तर पर स्किल डेवलपमेंट, ग्रामीण
रोजगार योजना, और MSME को बढ़ावा
देने की जरूरत है।
3.
फर्जीवाड़े पर सख्त कानून और तेजी से
न्याय
ऐसे मामलों में फास्ट ट्रैक कोर्ट बनाकर 3 से 6 महीने में सजा सुनाई जाए। ठगी करने वाले पर आर्थिक जुर्माना और संपत्ति कुर्की का सख्त प्रावधान हो।
4.
प्रशासनिक जवाबदेही तय हो
जिले के संबंधित थाना प्रभारी, अनुमंडल अधिकारी, और डीएसपी की भी
जवाबदेही तय होनी चाहिए कि
कैसे उनकी नाक के नीचे इतना बड़ा
नेटवर्क पनप गया।
यह समय है जागने का
पूर्णिया की यह घटना बिहार ही नहीं, पूरे देश के लिए एक चेतावनी
है। यह बताती है कि जब शासन निष्क्रिय
होता है, तो अपराधी सरकार का रूप धर लेते हैं।
हमें यह तय करना होगा कि क्या हम ऐसे
भारत में जीना चाहते हैं जहां फर्जी थाने असली थानों से ज्यादा सक्रिय हैं? जहां बेरोजगारी
युवाओं को अपराध के रास्ते पर ले जाती है?
और जहां वर्दी भरोसे की नहीं, डर की प्रतीक बन जाए?
यह घटना आज बिहार में हुई है, कल देश के किसी और
कोने में हो सकती है। समय रहते प्रशासन,
समाज और राजनीति को मिलकर कदम उठाना
होगा — नहीं तो वह दिन दूर नहीं जब कानून व्यवस्था सिर्फ किताबों में
रह जाएगी और जमीनी हकीकत सिर्फ फर्जीवाड़े बन जाएगी।
लेखक:
अशोक कुमार झा
प्रधान संपादक – रांची दस्तक
एवं PSA Live News
विशेषज्ञ – आंतरिक
सुरक्षा, सामाजिक न्याय एवं प्रशासनिक विफलता विश्लेषण

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