लेखक: अशोक कुमार झा
प्रधान संपादक: PSA Live News व Ranchi Dastak
क्या आपने कभी सुना है कि किसी कलेक्टर का घर गिर गया हो? किसी मंत्री के आवास की छत भरभरा कर ढह गई हो? या किसी नौकरशाह की कोठी किसी बारिश में ढह गई हो? नहीं ना?
क्योंकि ऐसा होता ही नहीं है। उनके मकानों की समय-समय पर मरम्मत होती है, भवनों की तकनीकी जांच होती है, अगर मरम्मत के लायक नहीं होते तो या तो उन्हें खाली करवा लिया जाता है, या पूरी तरह से नया भवन बना दिया जाता है — और यह सब होता है सरकार के बजट और सिस्टम की प्राथमिकता के तहत।
लेकिन जब बात उन भवनों की आती है जहाँ गरीबों के बच्चे पढ़ते हैं, जहाँ मजदूर परिवार अपना जीवन बिताते हैं, जहाँ आम नागरिक अपने परिवार की उम्मीदें लेकर रहते हैं — तो वही भवन अक्सर हादसों के इंतजार में खड़े दिखाई देते हैं। दरारें दिखती हैं, प्लास्टर झड़ता है, छतें सीलन से सड़ती हैं, लेकिन व्यवस्था तब तक नहीं जागती जब तक कि कोई हादसा न हो जाए।
ताजा उदाहरण: झालावाड़ का भयावह हादसा
राजस्थान के झालावाड़ ज़िले के मनोहरथाना ब्लॉक स्थित पिपलोदी के सरकारी स्कूल में छत गिरने से 7 मासूम बच्चों की दर्दनाक मौत हो गई। 9 से अधिक घायल हुए। ये बच्चे उस इमारत में पढ़ने आए थे जिसे ‘विद्यालय’ कहा जाता था, लेकिन वह भवन कब्रगाह में बदल गया। यह कोई पहली घटना नहीं है।
कुछ ही हफ्ते पहले झारखंड की राजधानी रांची में भी एक सरकारी स्कूल की दीवार गिरने से कई लोग घायल हुए थे, जिसमें एक व्यक्ति की जान चली गई। ये घटनाएं अलग-अलग राज्यों से हैं, लेकिन इनकी जड़ें एक ही हैं — लापरवाही, भ्रष्टाचार और गरीबों के जीवन की उपेक्षा।
वास्तव में गिरता क्या है — छत या व्यवस्था?
जब किसी स्कूल की छत गिरती है, जब किसी सड़क का पुल टूटता है, जब कोई मकान भरभराकर गिरता है — तब दरअसल सिर्फ ईंट-पत्थर नहीं गिरते। गिरती है हमारी प्रशासनिक संवेदनशीलता, नीतियों की निष्क्रियता, और सबसे बढ़कर वो भरोसा जो जनता अपने नेताओं, अफसरों और शासन पर करती है।
किसी भी सरकारी भवन को बनाने, उसके रखरखाव, निरीक्षण, और सुरक्षा के लिए सरकारी स्तर पर PWD (लोक निर्माण विभाग), नगर निगम, शिक्षा विभाग, और जिला प्रशासन जिम्मेदार होते हैं। लेकिन अफसोस की बात है कि इन भवनों की नियमित तकनीकी जांच, सेफ्टी ऑडिट, और जरूरी मरम्मत कार्य महज कागजों में ही होता है।
जो दिखता है, उसे सजाया जाता है; जो अनदेखा है, वह मौत बन जाता है
आप संसद भवन को देखिए — नया बना, भव्य और तकनीकी रूप से सुरक्षित। विधानसभाएं वातानुकूलित, सुसज्जित और टिकाऊ हैं। हाईकोर्ट, सचिवालय, मंत्रालय — सबका कायाकल्प होता रहता है। क्योंकि वहाँ बैठने वाले VIP होते हैं। उनकी जान की क़ीमत होती है।
लेकिन किसी आंगनबाड़ी केंद्र की बात कीजिए, किसी पंचायत भवन की, या किसी जिला स्कूल की — वहाँ तो अक्सर दीवारें झड़ती मिलती हैं, फर्श उखड़ा होता है, और छत में दरारें साफ़ दिखाई देती हैं। लेकिन जब तक कोई हादसा न हो जाए, अधिकारी दौरे पर नहीं आते। ये भवन भरोसे की कब्रगाह बने रहते हैं।
सवाल यह नहीं कि छत क्यों गिरी — सवाल यह है कि चेतावनी के बावजूद क्यों नहीं रोका गया?
झालावाड़ के हादसे में बच्चों ने खुद बताया कि छत में दरार है, लेकिन शिक्षकों ने उन्हें धमका कर चुप करा दिया। यह लापरवाही नहीं, यह अपराध है। बच्चों की बात को अनसुना करना, खतरे को नजरअंदाज करना और व्यवस्था की असंवेदनशीलता — ये सब इस मौत के बराबर दोषी हैं।
ऐसा पहली बार नहीं हुआ — देशभर में ऐसे सैकड़ों स्कूल, भवन, अस्पताल, पुलिस स्टेशन, सरकारी क्वार्टर मौजूद हैं, जहाँ लोग रोज़ मौत के साए में जीते हैं।
भ्रष्टाचार भी है बड़ा कारण
भवन निर्माण में होने वाला घटिया निर्माण कार्य, बजट का दुरुपयोग, ठेकेदार-अफसर गठजोड़ — ये सभी दुर्घटनाओं के कारण हैं। सरकारें सालाना करोड़ों रुपये ‘मरम्मती कार्य’ के नाम पर देती हैं, लेकिन वो राशि कहाँ जाती है, इसका रिकॉर्ड ज़्यादातर मामलों में फर्जीवाड़ा से भरा होता है।
सरकारी रिकॉर्ड कहता है — "मरम्मत हो गई", लेकिन ज़मीनी हकीकत कहती है — "छत में दरार आज भी है"।
क्या गरीबों की जान इतनी सस्ती है?
जब किसी मंत्री की गाड़ी सड़क में गड्ढे के कारण झटके खा जाए, तो दूसरे ही दिन सड़क की मरम्मत शुरू हो जाती है। लेकिन अगर किसी गरीब की जान उसी गड्ढे में चली जाए — तो एक जांच कमेटी बना दी जाती है, मुआवजा की घोषणा हो जाती है, और फिर सब भूल जाते हैं।
क्या यही है समाजिक न्याय? क्या यही है सुशासन?
एक अधिकारी की गलती पर यदि VIP की कोठी टूटे तो उसे सस्पेंड कर दिया जाता है। लेकिन जब किसी स्कूल में बच्चा मरता है, तो सब ‘प्राकृतिक आपदा’ या ‘दुर्घटना’ कह कर नज़रें फेर लेते हैं। ये संवेदनहीनता नहीं, यह अक्षम्य पाप है।
कानून, जवाबदेही और ज़रूरत की मांग
अब समय आ गया है कि देश में ‘भवन सुरक्षा कानून’ (Building Safety Accountability Law) की स्थापना हो। इसमें निम्नलिखित प्रावधान अनिवार्य किए जाएं:
- हर सरकारी भवन की वार्षिक तकनीकी जांच हो।
- हर विद्यालय, आंगनबाड़ी और अस्पताल की संरचनात्मक सेफ्टी रिपोर्ट सार्वजनिक की जाए।
- जहाँ भी खतरा हो, उसे तुरंत खाली कर मरम्मत या पुनर्निर्माण किया जाए।
- निर्माण कार्य में शामिल ठेकेदार, इंजीनियर, और स्वीकृति अधिकारी की व्यक्तिगत जवाबदेही तय हो।
- दुर्घटना होने पर सिर्फ मुआवजा नहीं, बल्कि आपराधिक मामला दर्ज हो।
मीडिया और समाज की भूमिका
हमें इन हादसों को केवल 'एक और दुखद समाचार' मानकर भूल नहीं जाना चाहिए। यह हमारी नागरिक चेतना की परीक्षा है। मीडिया को भी चाहिए कि वह इन मुद्दों को तब तक उठाता रहे, जब तक सरकारें नीतिगत बदलाव के लिए मजबूर न हो जाएं।
सिविल सोसाइटी को आगे आना चाहिए, ताकि “मौत के घरों में पलने वाली ज़िंदगियाँ” बचाई जा सकें।
सिस्टम को झकझोरने की ज़रूरत है
जब तक इस देश में गरीब की जान की क़ीमत केवल ₹5 लाख के मुआवज़े में आँकी जाती रहेगी, तब तक छतें गिरती रहेंगी, दीवारें ढहती रहेंगी, और सपने मरते रहेंगे।
लेकिन अब बहुत हो गया।
हमें पूछना होगा —
क्यों सिर्फ़ गरीबों के घर, स्कूल और अस्पताल ही गिरते हैं?
क्या मंत्री, अधिकारी और संपन्न वर्ग के भवनों के लिए ही शासन सजग है?
क्या शिक्षा का मंदिर अब बच्चों की समाधि बनते रहेंगे?
अब वक्त है कि हम आवाज़ उठाएं — “हमें सुरक्षित भवन चाहिए, दिखावटी घोषणाएं नहीं।”

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