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मिथिला की नवविवाहिताओं का विशेष पर्व मधुश्रावणी शुरू: परंपरा, आस्था और संस्कृति का संगम

मधुबनी। मिथिला की सांस्कृतिक विरासत और स्त्रियों की आध्यात्मिक चेतना को दर्शाने वाला अत्यंत पवित्र पर्व मधुश्रावणी मंगलवार से प्रारंभ हो गया। यह पर्व नवविवाहित महिलाओं द्वारा पति की दीर्घायु, सुख-समृद्धि और वैवाहिक जीवन की मंगलकामना हेतु श्रद्धा व आस्था के साथ मनाया जाता है। यह केवल मिथिलांचल की विशिष्ट परंपरा है, जो अन्यत्र कहीं नहीं मिलती।


श्रावण मास के कृष्ण पक्ष की पंचमी से प्रारंभ और शुक्ल पक्ष की तृतीया को समापन

इस वर्ष मधुश्रावणी व्रत श्रावण कृष्ण पंचमी (मैना पंचमी) से प्रारंभ हुआ है, और 27 जुलाई (श्रावण शुक्ल तृतीया) को इसका विधिवत समापन होगा। यह तेरह दिवसीय धार्मिक अनुष्ठान मिथिला के विभिन्न जिलों – मधुबनी, दरभंगा, समस्तीपुर, सहरसा, सुपौल, पूर्णिया, और सहरसा – में बड़े ही श्रद्धा व उल्लास से मनाया जा रहा है।

श्रृंगार और भक्ति का संगम
इन तेरह दिनों तक नवविवाहिताएं प्रतिदिन नववस्त्र धारण करती हैं, सोलह श्रृंगार करती हैं और फूल, बेलपत्र, करोटन के पत्ते आदि जंगलों और बगिचों से चुन-चुनकर लाती हैं। इन वस्तुओं को वे विशेष पूजा में उपयोग करती हैं। नवविवाहिता बासी फूल से विषहरा देवी (मनसा देवी) और शिव-पार्वती की पूजा करती हैं, जो इस पर्व की मुख्य देवी-देवता माने जाते हैं।

पति की दीर्घायु और रक्षा के लिए विशेष व्रत
मधुश्रावणी का सबसे महत्वपूर्ण पक्ष यह है कि यह व्रत पति की दीर्घायु, सुख-शांति एवं किसी भी अनहोनी से रक्षा की कामना के साथ किया जाता है। इस दौरान महिलाएं अपनी सास, जेठानी, ननद के सहयोग से पूजा की विधियों को सीखती हैं और पारंपरिक मिथिला संस्कृति से सीधे जुड़ती हैं।

दंतकथाओं और लोककथाओं की पाठशाला बनता है यह पर्व
पूरे तेरह दिनों तक हर दिन विशेष धार्मिक और पौराणिक कथाएं सुनाई जाती हैं, जिनमें मुख्य रूप से शामिल हैं:

  • मैना पंचमी व विषहरा जन्म कथा
  • बिहुला-लखंदर एवं मनसा देवी की कथा
  • मंगला गौरी व्रत कथा
  • समुद्र मंथन और अमृत मंथन की कथा
  • गौरी की तपस्या और शिव विवाह कथा
  • महादेव के पारिवारिक प्रसंग, गणेश व कार्तिकेय जन्म कथा
  • गंगा और गौरी के अवतरण की कथा
  • सती-सावित्री व्रत कथा
  • पृथ्वी माता की उत्पत्ति कथा
  • नारियों के पतिव्रता धर्म की महिमा
  • गोसाउनिक गीत और विषहरा भगवती गीत

सांस्कृतिक और सामाजिक दृष्टिकोण से भी महत्वपूर्ण
मधुश्रावणी केवल धार्मिक या पारिवारिक अनुष्ठान नहीं है, बल्कि यह नवविवाहित महिलाओं के लिए एक संस्कारपरक प्रशिक्षण केंद्र की भूमिका निभाता है, जहाँ उन्हें मिथिला की सामाजिक परंपराओं, रीति-रिवाजों, वैदिक अनुशासन, पारिवारिक उत्तरदायित्व और धार्मिक आचरण का सजीव पाठ पढ़ाया जाता है।

लोकगीतों की मिठास से भर जाता है वातावरण
इस पर्व में महिलाएं पारंपरिक मिथिला लोकगीत गाती हैं जिनमें विषहरा गीत, गोसाउनिक गीत, गौरी गीत प्रमुख होते हैं। इन गीतों के माध्यम से मिथिला की महिलाएं अपनी आस्था, भावनाओं और सांस्कृतिक समृद्धि को प्रकट करती हैं। ग्रामीण इलाकों में ढोलक, मंजीरा और थाली की थाप पर गूंजते ये गीत संपूर्ण वातावरण को भक्तिमय बना देते हैं।

लोककलाओं का पुनर्जागरण
इस अवसर पर मधुबनी पेंटिंग, अल्पना सज्जा, दीवारों की पेंटिंग, और लोक शिल्पकला का भी विशेष रूप से प्रदर्शन होता है। नवविवाहिताएं अपने ससुराल के आंगन को पारंपरिक अल्पना और माटी कला से सजाती हैं।

नारी शक्ति और पारिवारिक एकता का प्रतीक पर्व
यह पर्व न केवल वैवाहिक जीवन की दृढ़ता को बढ़ाता है, बल्कि महिलाओं में आत्मबल, संयम, भक्ति और परिवार की प्रति समर्पण भाव को भी सुदृढ़ करता है। यह पर्व सास-बहू के रिश्ते को भी आत्मीयता से जोड़ता है।


निष्कर्षतः, मधुश्रावणी केवल एक धार्मिक पर्व नहीं, बल्कि मिथिला की सांस्कृतिक अस्मिता, नारी श्रद्धा, और पारिवारिक मूल्यों का जीवंत प्रतीक है। यह परंपरा सदियों से महिलाओं को न केवल आध्यात्मिक रूप से सशक्त कर रही है, बल्कि उन्हें समाज की रीढ़ के रूप में गढ़ रही है। मिथिला की यह अनूठी परंपरा आज भी उतनी ही प्रासंगिक है जितनी अपने प्रारंभकाल में थी – पवित्रता, त्याग, प्रेम और संस्कृति का अद्भुत संगम।

(रिपोर्ट: पीएसए लाइव न्यूज़ – मधुबनी से)

मिथिला की नवविवाहिताओं का विशेष पर्व मधुश्रावणी शुरू: परंपरा, आस्था और संस्कृति का संगम मिथिला की नवविवाहिताओं का विशेष पर्व मधुश्रावणी शुरू: परंपरा, आस्था और संस्कृति का संगम Reviewed by PSA Live News on 4:38:00 pm Rating: 5

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