रांची प्रेस क्लब में हुई हालिया प्रेस वार्ता ने एक बार फिर यह सवाल खड़ा कर दिया है कि क्या हमारे लोकतंत्र में सच बोलने वालों, सामाजिक कार्यकर्ताओं और असहमति की आवाज़ उठाने वालों को आज भी सुरक्षित रहने का अधिकार है। सामाजिक कार्यकर्ता भैरव सिंह को झूठे मुकदमे में फँसाए जाने का मामला केवल एक व्यक्ति की परेशानी नहीं, बल्कि यह लोकतंत्र की उस जड़ों पर चोट है, जहाँ न्याय, पारदर्शिता और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की गारंटी दी गई है।
इस प्रेस वार्ता में भैरव सिंह की माता रानी देवी, स्वामी दिव्यानंद महाराज, और उनके अधिवक्ता कीर्ति नारायण सिंह ने खुलकर आरोप लगाए कि जिला प्रशासन, विशेषकर रांची के एसएसपी चंदन सिन्हा, मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन के इशारे पर, भैरव सिंह को बेवजह परेशान कर रहे हैं। रानी देवी की आँखों में भरे आँसू और उनके शब्दों में भरा दर्द इस बात का प्रमाण हैं कि किसी निर्दोष को जब सत्ता के इशारे पर प्रताड़ित किया जाता है, तो उसका असर केवल एक परिवार पर नहीं, बल्कि पूरे समाज पर पड़ता है।
लोकतांत्रिक मूल्यों पर गहरी चोट
भैरव सिंह जैसे सामाजिक कार्यकर्ता का गुनाह यही बताया जा रहा है कि उन्होंने जनहित से जुड़े मुद्दों को उठाने का साहस किया। चाहे वह प्रशासनिक भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज़ हो, गरीब और वंचित वर्ग के हक़ की लड़ाई हो, या फिर सरकारी तंत्र की खामियों को उजागर करना—भैरव सिंह हमेशा जनता की आवाज़ बने। लेकिन क्या लोकतंत्र में सच बोलना और अन्याय का विरोध करना अपराध है? अगर जवाब ‘नहीं’ है, तो फिर यह सवाल और भी गंभीर हो जाता है कि आखिर उन्हें झूठे आरोपों में जेल क्यों भेजा गया?
लोकतंत्र की असली पहचान असहमति को सहने और आलोचना को सुनने की क्षमता से होती है। लेकिन अगर सत्ता अपने आलोचकों को डराने-धमकाने या झूठे मामलों में फँसाने लगे, तो यह लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए बेहद खतरनाक संकेत है।
मानवाधिकारों का खुला उल्लंघन
अधिवक्ता कीर्ति नारायण सिंह ने सही कहा कि यह मामला न केवल न्याय व्यवस्था की विश्वसनीयता को चुनौती देता है, बल्कि यह मानवाधिकारों का सीधा उल्लंघन भी है। एक निर्दोष व्यक्ति को बिना ठोस सबूत के जेल भेज देना, न्याय की मूल भावना के साथ खिलवाड़ है।
स्वामी दिव्यानंद महाराज ने प्रेस वार्ता में जो चेतावनी दी, वह केवल एक धार्मिक नेता का बयान नहीं, बल्कि समाज की गहरी चिंता की गूँज थी। उन्होंने कहा कि यदि निर्दोष लोगों को इस प्रकार झूठे मामलों में फँसाया जाएगा, तो समाज में विश्वास और न्याय की नींव हिल जाएगी।
क्या प्रशासन दबाव में काम कर रहा है?
भैरव सिंह की माता ने जिस तरह सीधे मुख्यमंत्री और रांची के एसएसपी पर आरोप लगाए, वह साधारण बात नहीं है। लोकतंत्र में प्रशासनिक तंत्र से उम्मीद की जाती है कि वह निष्पक्ष और पारदर्शी हो, लेकिन यहाँ सवाल उठ रहा है कि क्या प्रशासन राजनीतिक दबाव में काम कर रहा है? अगर यह सच है, तो यह केवल भैरव सिंह का नहीं, बल्कि पूरे लोकतांत्रिक ढांचे का अपमान है।
सवाल जनता से भी
यह मुद्दा केवल अदालतों और प्रशासनिक दफ्तरों तक सीमित नहीं रहना चाहिए। जनता को भी यह सोचना होगा कि जब किसी सामाजिक कार्यकर्ता को सच्चाई बोलने पर जेल में डाल दिया जाता है, तो कल को यह अन्याय उनके दरवाज़े पर भी दस्तक दे सकता है। लोकतंत्र केवल नेताओं और अफसरों की जागीर नहीं है; यह जनता की आवाज़ पर खड़ा होता है। अगर जनता चुप रही, तो ऐसे मामले आम हो जाएँगे।
ज़रूरत है निष्पक्ष जाँच की
इस पूरे मामले का सबसे बड़ा समाधान यही है कि भैरव सिंह के खिलाफ लगाए गए आरोपों की निष्पक्ष और पारदर्शी जाँच कराई जाए। दोषी चाहे प्रशासनिक अधिकारी हों या राजनीतिक नेतृत्व—उन्हें जवाबदेह ठहराना लोकतांत्रिक मर्यादा का हिस्सा है। साथ ही, यदि भैरव सिंह निर्दोष साबित होते हैं, तो उन्हें तत्काल न्याय दिलाया जाना चाहिए और झूठे मामले दर्ज करने वालों पर कार्रवाई होनी चाहिए।
भैरव सिंह का मामला महज एक व्यक्ति का नहीं, बल्कि लोकतंत्र और न्याय व्यवस्था की असल तस्वीर दिखाता है। यह हमें आगाह करता है कि सत्ता जब असहमति को दबाने के लिए प्रशासन का इस्तेमाल करती है, तो वह जनता के विश्वास को चोट पहुँचाती है। आज ज़रूरत है कि समाज, मीडिया और न्यायपालिका मिलकर इस अन्याय के खिलाफ आवाज़ बुलंद करें।
लोकतंत्र का आधार केवल चुनाव नहीं, बल्कि न्याय और सच्चाई की रक्षा है। अगर हम भैरव सिंह जैसे कार्यकर्ताओं को न्याय नहीं दिला पाए, तो इतिहास हमें माफ़ नहीं करेगा।

कोई टिप्पणी नहीं: