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लोकतंत्रक मोड़ पर (मैथिली कविता)

अशोक कुमार झा 

लोकतंत्र हमर सगर संसार,

जनक अधिकारक अमूल्य आधार।
संविधानक सपना छल उजियार,
आज धरि के मोड़ पर बुझाइए भार।

मतदाता छी, मुदा आवाज़ गुम,
सत्ता चलैछ बिना जनताक संग।
नीति विहीन विरोधक नोर,
जातिवादक रंगि भरल होइछ खतरनाक संग।

जनता पूछे नै, अधिकारी चुप,
मीडिया प्रपंचक खेल खेलैछ खूब।
प्रचारक चमक छलकाइत सगर देश,
सत्य ओझल, झूठक राज भेलेश।

सरकार कहैछ — "हम जनक सेवा करब",
मुदा निर्णय मात्र प्रचारक भरब।
विपक्ष मुद्दा रहित, नीति रहित,
सत्ता लेल राष्ट्र विरोधक राह चुनल।

भीड़तंत्र बनल, जनतंत्र हेरा गेल,
सोचवाला मौन भेल, विवेक ओझल।
लोकतंत्रक आत्मा, कोना बचाबी?
सर्वजनक जागरूकता सँ, पुनः उजियारी।

विश्व देखैत अछि, रूस आ चीन,
जहाँ लोकतंत्र बनल केवल शून्य चिन।
हमर भारतक गौरव, स्वतंत्रताक शान,
जनता जागत, तखन बनत महान।

अंततः संदेश, एहि कविता सँ बाज़े —
लोकतंत्र केवल नाम नहि, जिम्मेदारी हमर हाथ!
वोट मात्र आरंभ, प्रहरी बनु साँच,
जनता जागत, तखन लोकतंत्र सफल, सच्च।


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