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पत्रकारों पर बढ़ते हमले और लोकतंत्र की असली कसौटी

जर्नलिस्ट काउंसिल ऑफ इंडिया ने भरी हुंकार – “पत्रकार सुरक्षित नहीं तो लोकतंत्र भी असुरक्षित”


नई दिल्ली।
पत्रकारों पर हो रहे हमलों, उत्पीड़न और फर्जी मुकदमों ने एक बार फिर लोकतंत्र की रीढ़ कहे जाने वाले इस पेशे को संकट में खड़ा कर दिया है। बीते वर्षों में ऐसे असंख्य मामले सामने आए हैं, जहां पत्रकारों पर न केवल शारीरिक हमले हुए, बल्कि उन्हें सत्ता-तंत्र के दबाव, पुलिसिया कार्रवाई और मुकदमों के जरिए भी डराने की कोशिश की गई। सवाल यह है कि जब समाज का आईना ही चकनाचूर कर दिया जाएगा, तो लोकतंत्र का चेहरा कैसे साफ-सुथरा दिखाई देगा?

इन्हीं हालात पर चिंता जाहिर करते हुए जर्नलिस्ट काउंसिल ऑफ इंडिया ने एक वर्चुअल मीटिंग आयोजित की, जिसमें देशभर से जुड़े एक सैकड़ा से अधिक पत्रकारों, राष्ट्रीय और प्रादेशिक पदाधिकारियों ने हिस्सा लिया। बैठक का स्वर एकदम स्पष्ट था – पत्रकारों को भयमुक्त वातावरण में कार्य करने की गारंटी सरकार को देनी होगी।

छोटे अख़बार और ई-पेपर का अस्तित्व संकट में

संगठन के अध्यक्ष डॉ. अनुराग सक्सेना ने कहा कि आज छोटे अख़बार अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं। डिजिटल युग में ई-पेपर को मान्यता न देना पत्रकारिता के भविष्य के साथ अन्याय है। उन्होंने कहा कि “पत्रकारिता अगर केवल बड़े मीडिया हाउस तक सीमित हो जाएगी तो लोकतंत्र की जड़ें खोखली हो जाएंगी। समाज की नब्ज को सबसे नजदीक से पकड़ने वाले स्थानीय पत्रकार ही असली प्रहरी हैं।”

असंगठित पत्रकारों को संगठित होने का आह्वान

राष्ट्रीय पदाधिकारी राजू चारण ने कहा – “जब तक पत्रकार बिखरे रहेंगे, उनकी आवाज दबाई जाती रहेगी। समय आ गया है कि असंगठित पत्रकार एक मंच पर आकर संघर्ष करें। इसके लिए जर्नलिस्ट काउंसिल ऑफ इंडिया से बेहतर कोई मंच नहीं हो सकता।”
बिहार प्रभारी कुणाल भगत ने अपनी चिंता व्यक्त करते हुए कहा कि अब पत्रकारों का शोषण आम बात हो गई है। सत्ता या प्रशासन की आलोचना करने पर उनके खिलाफ झूठे केस दर्ज कर दिए जाते हैं। उन्होंने चेतावनी दी कि “अब संगठन चुप नहीं बैठेगा। संघर्ष करना पड़े तो पीछे नहीं हटेंगे।”

पत्रकारिता – समाज का आईना या सत्ता का शिकार?

राष्ट्रीय पदाधिकारी अशोक झा जी ने कहा कि पत्रकारिता समाज का आईना है और इसे साफ-सुथरा रखना ही असली जिम्मेदारी है। लेकिन जब इस आईने पर सत्ता की धूल जमाई जाती है या डर-धमकी के पत्थर मारे जाते हैं, तो समाज खुद अपना असली चेहरा खो बैठता है।

राष्ट्रीय संयोजक डॉ. आर.सी. श्रीवास्तव ने पत्रकारों से संगठित होकर संघर्ष का आह्वान करते हुए कहा – “संगठित पत्रकार किसी भी लड़ाई को आसानी से जीत सकते हैं। आज जरूरत है कि हम व्यक्तिगत स्वार्थ छोड़कर सामूहिक ताक़त बनाएं।”

सरकार से सीधा सवाल

पत्रकारों ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को जन्मदिन की शुभकामनाएं देते हुए उनसे अपील की कि जिला और स्थानीय स्तर के पत्रकारों को मान्यता देने की प्रक्रिया जल्द शुरू की जाए।
यह मांग केवल औपचारिकता नहीं है। असलियत यह है कि देश के कोने-कोने से समाचार वही पत्रकार लाते हैं, जिनका नाम बड़े अख़बारों के पहले पन्ने पर छपता तक नहीं। वे ही जोखिम उठाकर गली-गली से खबरें जुटाते हैं, लेकिन उन्हें न मान्यता मिलती है, न सुरक्षा। सवाल उठता है कि आखिर सरकार कब इन “अनाम प्रहरी” पत्रकारों की सुध लेगी?

लोकतंत्र की असली परीक्षा

पत्रकारिता केवल नौकरी नहीं, बल्कि लोकतंत्र की सबसे अहम जिम्मेदारी है। संविधान ने नागरिकों को जो अभिव्यक्ति की आज़ादी दी है, उसी का सबसे बड़ा प्रहरी पत्रकार है। अगर पत्रकारों को डराकर, मुकदमों में फंसाकर या हमलों से चुप कराया जाएगा, तो लोकतंत्र का यह स्तंभ धीरे-धीरे गिर जाएगा। और जब यह स्तंभ ढहेगा, तो पूरा लोकतांत्रिक ढांचा हिल जाएगा।

जर्नलिस्ट काउंसिल ऑफ इंडिया की यह बैठक सिर्फ एक संगठन का बयान नहीं, बल्कि पूरे देश के पत्रकार समाज की सामूहिक पुकार है।
सरकार को यह समझना होगा कि पत्रकार सुरक्षित नहीं होंगे, तो लोकतंत्र भी सुरक्षित नहीं रहेगा।
आज जरूरत है कि पत्रकारिता को “चौथा स्तंभ” कहने से आगे बढ़कर इसे संरक्षित स्तंभ बनाया जाए।
क्योंकि अगर आईना टूट गया, तो समाज का चेहरा हमेशा के लिए धुंधला हो जाएगा।

पत्रकारों पर बढ़ते हमले और लोकतंत्र की असली कसौटी पत्रकारों पर बढ़ते हमले और लोकतंत्र की असली कसौटी Reviewed by PSA Live News on 8:55:00 pm Rating: 5

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