झारखंड में भाजपा की हार: संगठनात्मक अस्थिरता, आदिवासी अस्मिता और स्थानीय मुद्दों पर कमजोर पड़ता “राष्ट्रवादी एजेंडा”
रांची। हिंदुस्तान की राजनीति में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) राष्ट्रीय स्तर पर जिस ताक़त और सामर्थ्य का परिचय देती है, वही पार्टी झारखंड में बेहद कमजोर और बिखरी हुई दिखाई देती है। नवंबर 2024 के विधानसभा चुनाव ने इस हक़ीक़त को और पुख्ता कर दिया, जब महाराष्ट्र जैसे बड़े और जटिल राज्य में भाजपा ने बंपर जीत के साथ सत्ता में शानदार वापसी की, लेकिन झारखंड में पार्टी बुरी तरह पिछड़ गई और महज़ 21 सीटों पर सिमटकर रह गई।
2019 के विधानसभा चुनाव में भी भाजपा को झटका लगा था, लेकिन तब उम्मीद थी कि संगठन और नेतृत्व आत्ममंथन कर अपनी कमियों को दूर करेगा। इसके विपरीत, 2024 में पार्टी को और बड़ी हार झेलनी पड़ी। सवाल उठने लगे हैं कि आखिर क्यों झारखंड में भाजपा “फिस्सडी” साबित हो रही है, जबकि बाकी देश में वह सत्ता और संगठन के स्तर पर लगातार सशक्त नज़र आती है।
झारखंड की राजनीति और भाजपा का सफ़र (2000–2024)
झारखंड का गठन 15 नवंबर 2000 को हुआ। शुरुआत से ही भाजपा ने यहां मजबूत उपस्थिति दर्ज कराई। बाबूलाल मरांडी झारखंड के पहले मुख्यमंत्री बने। भाजपा ने शुरुआती वर्षों में आदिवासी नेतृत्व के सहारे राज्य में अपना आधार मजबूत किया।
2003 में अर्जुन मुंडा मुख्यमंत्री बने और लंबे समय तक भाजपा का चेहरा बने रहे। लेकिन धीरे-धीरे पार्टी में गुटबाजी और स्थानीय बनाम बाहरी नेतृत्व की खींचतान ने भाजपा की पकड़ कमजोर करनी शुरू कर दी।
2014 में नरेंद्र मोदी की लहर पर सवार होकर भाजपा ने झारखंड में स्पष्ट बहुमत की सरकार बनाई। रघुवर दास मुख्यमंत्री बने—वे पहले गैर-आदिवासी मुख्यमंत्री थे। यही निर्णय धीरे-धीरे भाजपा के लिए उलटा साबित हुआ। आदिवासी समाज, जो झारखंड की राजनीति की धुरी है, ने इसे अपनी अस्मिता पर चोट माना और भाजपा से दूरी बनाने लगा।
2019 के चुनाव में झामुमो, कांग्रेस और राजद गठबंधन ने मिलकर भाजपा को सत्ता से बाहर कर दिया। 2024 में उम्मीद थी कि भाजपा वापसी करेगी, लेकिन परिणाम और निराशाजनक रहे।
2024 की हार: रणनीति में कमज़ोरी
भाजपा ने चुनाव में पूरे दमख़म के साथ प्रचार किया। शिवराज सिंह चौहान और हिमंता विश्वा सरमा जैसे दिग्गज नेता लगातार प्रचार में डटे रहे। लेकिन बाहरी नेताओं पर अत्यधिक निर्भरता ने स्थानीय नेतृत्व को हाशिए पर धकेल दिया। मतदाता और कार्यकर्ता दोनों ही इस सवाल से जूझते रहे कि झारखंड भाजपा का असली चेहरा कौन है?
पार्टी की रणनीति ज़्यादातर राष्ट्रीय मुद्दों और प्रधानमंत्री मोदी की लोकप्रियता पर टिकी रही। लेकिन मतदाता बेरोज़गारी, खनन नीति, विस्थापन, भ्रष्टाचार और स्थानीय पहचान जैसे मुद्दों पर ज़्यादा मुखर थे। यही वजह रही कि भाजपा का राष्ट्रवादी एजेंडा स्थानीय सरोकारों के आगे फीका पड़ गया।
आदिवासी अस्मिता और भाजपा की दूरी
झारखंड की राजनीति का मूल आधार “जल, जंगल, जमीन” और आदिवासी अस्मिता है।
2014 में रघुवर दास को मुख्यमंत्री बनाए जाने से ही भाजपा और आदिवासी समाज के बीच दूरी बढ़ी। पार्टी ने समय-समय पर आदिवासी चेहरों को आगे लाने की कोशिश की, लेकिन वह स्थायी विश्वास कायम नहीं कर सकी।
2024 में झामुमो ने आदिवासी अस्मिता को प्रमुख मुद्दा बनाकर चुनाव लड़ा। हेमंत सोरेन ने आदिवासी हितों और स्थानीय अधिकारों के मुद्दों को बड़े आक्रामक ढंग से उठाया। कांग्रेस ने भी इसमें बराबरी की हिस्सेदारी निभाई। नतीजा यह हुआ कि आदिवासी इलाकों में भाजपा लगभग खाली हाथ रह गई।
संगठनात्मक अस्थिरता और गुटबाज़ी
भाजपा की हार का एक बड़ा कारण संगठनात्मक अस्थिरता भी रही।
चुनाव से पहले ही रवींद्र राय को कार्यकारी अध्यक्ष बनाया गया था, लेकिन चुनाव के महज़ 11 महीने बाद ही उन्हें हटा दिया गया। अचानक संगठन ने भाजपा प्रदेश महामंत्री आदित्य साहू को कार्यकारी अध्यक्ष बना दिया।
यह बदलाव बिना किसी सांगठनिक चुनाव प्रक्रिया के किया गया, जिससे कार्यकर्ताओं में असंतोष और असमंजस दोनों ही बढ़े।
वहीं, बूथ स्तर से लेकर मंडल और प्रदेश स्तर तक के संगठनात्मक चुनाव तय समय पर नहीं हो सके। यह दर्शाता है कि झारखंड भाजपा आंतरिक खींचतान और नेतृत्व संकट से जूझ रही है।
स्थानीय मुद्दों की अनदेखी
भाजपा की सबसे बड़ी चूक यह रही कि उसने झारखंड के स्थानीय मुद्दों को प्राथमिकता नहीं दी।
खनन और उद्योगों से विस्थापन, रोजगार की कमी, पलायन, शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं की बदहाली जैसे मुद्दों ने मतदाताओं को गहराई से प्रभावित किया।
भाजपा जहां राष्ट्रीय योजनाओं का बखान कर रही थी, वहीं विपक्ष इन स्थानीय समस्याओं को लगातार जनता के सामने रख रहा था। यही कारण रहा कि मतदाता भाजपा से और दूर हो गए।
गठबंधन की राजनीति में पिछड़ना
झामुमो, कांग्रेस और राजद का गठबंधन बेहद मजबूत साबित हुआ।
इन पार्टियों ने सीटों का बंटवारा समझदारी से किया और एकजुट होकर चुनाव लड़ा। इसके उलट भाजपा ने किसी भी क्षेत्रीय दल से गंभीर गठबंधन की कोशिश नहीं की।
झारखंड की राजनीति में छोटे दलों और स्थानीय समीकरणों की अहम भूमिका होती है। भाजपा इस पहलू की अनदेखी करती रही, और इसका खामियाजा उसे हार के रूप में भुगतना पड़ा।
भाजपा के लिए आगे की राह
झारखंड में भाजपा की वापसी आसान नहीं होगी।
राजनीतिक पर्यवेक्षक मानते हैं कि पार्टी को सबसे पहले संगठनात्मक स्थिरता लानी होगी। पारदर्शी ढंग से बूथ से लेकर प्रदेश अध्यक्ष तक के चुनाव कराने होंगे, ताकि कार्यकर्ताओं में विश्वास बने।
दूसरा, पार्टी को स्थानीय नेतृत्व को आगे बढ़ाना होगा। केवल राष्ट्रीय चेहरों के दम पर झारखंड जीतना मुश्किल है।
तीसरा, आदिवासी समाज के साथ विश्वास बहाली के लिए ठोस कदम उठाने होंगे। केवल प्रतीकात्मक नीतियों से काम नहीं चलेगा।
चौथा, भाजपा को स्थानीय मुद्दों पर केंद्रित ठोस एजेंडा बनाना होगा—रोजगार, विस्थापन, खनन नीति और पलायन जैसे विषयों पर स्पष्ट रोडमैप देना होगा।
निष्कर्ष
भाजपा राष्ट्रीय स्तर पर जितनी मज़बूत दिखती है, झारखंड में उतनी ही बिखरी और कमजोर दिखाई देती है।
2024 की हार ने साफ कर दिया कि यहां केवल “मोदी फैक्टर” पर भरोसा कर चुनाव नहीं जीता जा सकता। जब तक भाजपा संगठनात्मक अनुशासन, स्थानीय नेतृत्व और क्षेत्रीय मुद्दों पर गंभीर नहीं होगी, तब तक झारखंड में उसकी राह आसान नहीं होगी।
वरना, राष्ट्रीय राजनीति में “सशक्त भाजपा” और झारखंड में “फिस्सडी भाजपा” का यह विरोधाभास बना रहेगा।

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