अशोक कुमार झा, सम्पादक : PSA लाइव न्यूज़ एवं रांची दस्तक ।
हिंदुस्तान की राजनीति में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) आज सबसे ताक़तवर संगठन के रूप में देखी जाती है। केंद्र की सत्ता में दो बार पूर्ण बहुमत, आधे से अधिक राज्यों में शासन और विपक्ष में भी सबसे बड़ी पार्टी—यह तस्वीर भाजपा की राष्ट्रीय शक्ति को दर्शाती है। लेकिन इस सुनहरी तस्वीर के बीच झारखंड एक ऐसा अपवाद है, जहाँ भाजपा बार-बार फिसल रही है।
2014 में रघुवर दास की अगुवाई में पहली बार झारखंड में भाजपा ने पूर्ण बहुमत की सरकार बनाई। तब लग रहा था कि पार्टी लंबे समय तक यहाँ टिकेगी। लेकिन 2019 आते-आते भाजपा सत्ता से बाहर हो गई और झामुमो-कांग्रेस-राजद गठबंधन ने सरकार बना ली। पाँच साल विपक्ष में रहने के बाद भाजपा ने 2024 में पूरी ताक़त से वापसी की कोशिश की। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से लेकर गृह मंत्री अमित शाह, रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह, और शिवराज सिंह चौहान व हिमंता बिस्वा सरमा जैसे रणनीतिकार मैदान में उतरे। लेकिन परिणाम भाजपा के लिए और भी बुरे साबित हुए—पार्टी महज़ 21 सीटों पर सिमट गई।
यह परिघटना केवल चुनावी पराजय नहीं है, बल्कि भाजपा के सांगठनिक, रणनीतिक और नेतृत्व संकट का आईना है।
1. ऐतिहासिक पृष्ठभूमि: भाजपा और झारखंड
झारखंड राज्य की स्थापना वर्ष 2000 में हुई थी। यहाँ की राजनीति शुरू से ही अस्थिर रही है। झामुमो, कांग्रेस और क्षेत्रीय दलों ने लगातार सरकारें बनाईं और गिराईं। भाजपा ने शुरू में सहयोगी के तौर पर सत्ता देखी, लेकिन 2014 में पहली बार अपने दम पर बहुमत पाया।
रघुवर दास सरकार ने पाँच साल का कार्यकाल पूरा किया—यह झारखंड के इतिहास में पहली स्थायी सरकार थी। उस समय भाजपा को लगा कि राज्य की राजनीति अब स्थिर हो गई है और संगठन मज़बूत हो गया है। लेकिन 2019 में जब चुनाव हुए तो जनता ने भाजपा को बाहर कर दिया।
2. 2014–2019 की रघुवर सरकार : उपलब्धियाँ और असंतोष
रघुवर दास सरकार ने कई विकास योजनाएँ शुरू कीं—
- सड़क और बिजली ढांचे में सुधार
- 'मोमेंटम झारखंड' निवेश सम्मेलन
- किसानों के लिए योजनाएँ
- पंचायत स्तर पर प्रशासनिक सुधार
लेकिन इन उपलब्धियों के बावजूद सरकार पर कई आरोप लगे—
- भ्रष्टाचार और माइनिंग लॉबी से गठजोड़
- भूमि अधिग्रहण कानून में बदलाव का प्रयास, जिससे आदिवासी समाज नाराज़ हुआ
- बेरोज़गारी और पलायन की समस्या जस की तस
- पार्टी के भीतर गुटबाज़ी और असंतोष
इन कारणों से 2019 में भाजपा का वोट बैंक खिसक गया।
3. 2019 चुनाव : सत्ता से बाहर, संगठन की कमजोरी उजागर
2019 में भाजपा को 25 सीटें मिलीं। झामुमो ने कांग्रेस और राजद के साथ गठबंधन कर बहुमत हासिल किया। हेमंत सोरेन मुख्यमंत्री बने।
इस चुनाव ने भाजपा को यह संदेश दिया कि केवल मोदी लहर या केंद्रीय नेतृत्व के सहारे राज्य की राजनीति नहीं जीती जा सकती। स्थानीय नेतृत्व और क्षेत्रीय अस्मिता को भी समझना पड़ेगा।
4. 2024 चुनाव : और बड़ी पराजय
नवंबर 2024 के विधानसभा चुनाव में भाजपा ने भारी ताक़त झोंकी। प्रचार में प्रधानमंत्री से लेकर केंद्रीय मंत्रियों तक ने दर्जनों रैलियाँ कीं। शिवराज सिंह चौहान और हिमंता सरमा जैसे नेताओं ने रणनीति बनाई।
लेकिन नतीजा चौंकाने वाला था। भाजपा 21 सीटों पर सिमट गई। यानी 2019 से भी चार सीट कम।
इस चुनाव में स्पष्ट हुआ कि—
- भाजपा की रणनीति जमीनी हकीकत से कट गई थी।
- आदिवासी समाज पूरी तरह झामुमो के साथ रहा।
- कांग्रेस ने ग्रामीण क्षेत्रों में पकड़ मज़बूत की।
- स्थानीय नेतृत्व भाजपा के पास नहीं था।
5. संगठनात्मक संकट : समय पर चुनाव क्यों नहीं?
चुनावी हार के बाद भाजपा ने सांगठनिक चुनाव कराने का ऐलान किया। बूथ, मंडल से लेकर प्रदेश अध्यक्ष तक पदों पर चुनाव होना था। लेकिन झारखंड इकाई ने तय समय पर यह प्रक्रिया पूरी नहीं की।
चुनाव के दौरान रवींद्र राय कार्यकारी अध्यक्ष बनाए गए थे। लेकिन 11 महीने बाद अचानक उन्हें हटा दिया गया और महामंत्री आदित्य साहू को कार्यकारी अध्यक्ष बना दिया गया।
यह कदम कार्यकर्ताओं के बीच असमंजस पैदा करने वाला रहा। कार्यकर्ताओं को यह संदेश गया कि पार्टी नेतृत्व झारखंड में स्पष्ट दिशा तय नहीं कर पा रहा।
6. भाजपा बनाम झामुमो : दो राजनीतिक संस्कृतियाँ
झामुमो की राजनीति का आधार है आदिवासी अस्मिता और स्थानीय पहचान। हेमंत सोरेन लगातार इस नैरेटिव को साधते रहे। उन्होंने आदिवासी वोट बैंक को मजबूती से थामे रखा और ग्रामीण क्षेत्रों में विकास व सामाजिक न्याय के संदेश को आगे बढ़ाया।
इसके विपरीत भाजपा की राजनीति राष्ट्रीय मुद्दों और मोदी फैक्टर पर टिकी रही। लेकिन झारखंड के मतदाता रोजगार, विस्थापन, जल-जंगल-जमीन और स्थानीय नेतृत्व की तलाश में थे। यही भाजपा की सबसे बड़ी कमजोरी साबित हुई।
7. महाराष्ट्र बनाम झारखंड : क्यों अलग हैं हालात?
महाराष्ट्र में भाजपा-शिवसेना (शिंदे गुट) गठबंधन ने 2024 में शानदार जीत हासिल की। इसका कारण था—
- मजबूत स्थानीय नेतृत्व (फडणवीस और शिंदे)
- गठबंधन की राजनीति पर पकड़
- क्षेत्रीय और जातीय समीकरणों का संतुलन
झारखंड में भाजपा न तो स्थानीय नेतृत्व पेश कर सकी, न ही आदिवासी-गैरआदिवासी समीकरण साध सकी। यही कारण है कि राष्ट्रीय जीत की कहानी यहाँ हार में बदल गई।
8. गुटबाज़ी और नेतृत्व का संकट
झारखंड भाजपा के भीतर लगातार गुटबाज़ी की चर्चा रहती है। कुछ गुट रघुवर दास के समर्थक हैं, कुछ अर्जुन मुंडा के। हाल के वर्षों में बाबूलाल मरांडी को भी नेतृत्व में जगह दी गई, लेकिन वे भी पूरे संगठन को एकजुट नहीं कर सके।
रवींद्र राय को कार्यकारी अध्यक्ष बनाना और फिर हटाना, यह सब संगठन की अस्थिरता का प्रतीक है।
9. आदिवासी समाज से दूरी
भाजपा की सबसे बड़ी विफलता है—आदिवासी समाज का समर्थन खोना।
- भूमि अधिग्रहण कानून में संशोधन का प्रयास
- स्थानीय मुद्दों की अनदेखी
- झामुमो का अस्मिता आधारित नैरेटिव
इन कारणों से भाजपा आदिवासी वोट बैंक से लगभग पूरी तरह दूर हो गई।
10. भाजपा के लिए सबक और भविष्य की राह
भाजपा अगर झारखंड में भविष्य में अपनी पकड़ मज़बूत करना चाहती है तो उसे—
- स्थानीय नेतृत्व खड़ा करना होगा।
- आदिवासी समाज का विश्वास वापस पाना होगा।
- युवा और रोजगार के मुद्दों को प्राथमिकता देनी होगी।
- संगठनात्मक चुनाव तय समय पर कराकर कार्यकर्ताओं का मनोबल बढ़ाना होगा।
- केंद्रीय नेतृत्व पर अत्यधिक निर्भरता कम कर स्थानीय नेतृत्व को सामने लाना होगा।
अंततः भाजपा को यह समझना होगा कि झारखंड भाजपा की पराजय केवल सीटों की कमी नहीं है, बल्कि यह संगठनात्मक संकट, रणनीतिक भूल और स्थानीयता की अनदेखी का परिणाम है। जब तक भाजपा झारखंड की राजनीतिक और सामाजिक वास्तविकताओं को नहीं समझेगी, तब तक राष्ट्रीय शक्ति भी यहाँ असरदार नहीं होगी।
भाजपा के लिए यह समय है आत्ममंथन का। क्योंकि राष्ट्रीय स्तर पर जितनी मज़बूत तस्वीर है, झारखंड की ज़मीन उतनी ही कमजोर है।

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