✍️ अशोक कुमार झा : प्रधान संपादक – रांची दस्तक एवं PSA Live News
हिंदुस्तान का लोकतंत्र दुनिया के इतिहास में सबसे बड़ा प्रयोग है — एक ऐसा राष्ट्र जहाँ सवा अरब से अधिक लोग, सैकड़ों भाषाएँ, सैकड़ों जातियाँ और दर्जनों धर्म, एक संविधान के तहत, एक मत से अपनी सरकार चुनते हैं।
संविधान सभा ने जब इस देश की लोकतांत्रिक नींव रखी थी, तब डॉ. भीमराव अंबेडकर ने कहा था —
“राजनीतिक लोकतंत्र तभी टिकेगा जब वह सामाजिक और आर्थिक लोकतंत्र में परिवर्तित होगा।”
लेकिन आज सवाल यह है —
क्या हिंदुस्तान का लोकतंत्र अब भी जनता की आकांक्षाओं का प्रतिनिधि है, या वह धीरे-धीरे सत्ता, पूंजी और प्रचार का एक तंत्र बनता जा रहा है?
लोकतंत्र से व्यवस्थातंत्र की यात्रा
1947 में जब आज़ादी मिली, तब लोकतंत्र हमारे लिए केवल शासन प्रणाली नहीं, बल्कि जनभागीदारी का व्रत था।
परंतु समय के साथ लोकतंत्र “संविधान की आत्मा” से हटकर “चुनावी प्रबंधन” में बदल गया।
अब लोकतंत्र का अर्थ जनता की भागीदारी नहीं, बल्कि वोट बैंक का गणित रह गया है।
हर चुनाव अब विचारों की नहीं, “जातियों की गिनती”, “ध्रुवीकरण की रणनीति” और “प्रचार की चमक” पर आधारित होता जा रहा है।
आज जनता का वोट सत्ता की वैधता तो देता है, लेकिन जनता की आवाज़ सत्ता के गलियारों में कहीं खो जाती है।
संविधान सभा की चेतावनी और आज की हकीकत
संविधान सभा की बहसों को पढ़ें तो साफ़ दिखता है कि उस समय नेताओं को सबसे बड़ा डर “लोकतंत्र का दुरुपयोग” था।
नेहरू ने कहा था —
“हम राजनीतिक स्वतंत्रता पा लेंगे, पर यदि सामाजिक असमानता बनी रही, तो लोकतंत्र केवल नाम का रह जाएगा।”
आज वही हो रहा है — लोकतंत्र का नाम बचा है, लेकिन उसकी आत्मा घायल है।
हमारे देश में आज सत्ता केंद्रित, नीति विहीन और प्रचार-प्रधान लोकतंत्र उभर आया है, जहाँ जनता केवल ‘इवेंट’ का हिस्सा है, निर्णय का नहीं।
1975 का आपातकाल और आज की स्थिति
हमारा लोकतंत्र एक बार पहले भी डगमगा चुका है — 1975 का आपातकाल उसका सबसे काला अध्याय था।
उस समय अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता कुचली गई, प्रेस पर सेंसरशिप लगी, विरोधियों को जेल में डाला गया।
लेकिन आज का संकट उससे भी गहरा है — क्योंकि अब कोई औपचारिक आपातकाल नहीं है, फिर भी स्वतंत्रता धीरे-धीरे सीमित होती जा रही है।
अब असहमति को “देशद्रोह” कहा जाता है, विरोध को “एंटी-नेशनल” का नाम दिया जाता है।
जहाँ डर बिना घोषणा के व्याप्त हो जाए, वहाँ लोकतंत्र नहीं — मौन का शासन होता है।
मुद्दाहीन और नीति-विहीन विपक्ष: लोकतंत्र का दूसरा सबसे बड़ा खतरा
किसी भी लोकतंत्र की ताकत केवल सशक्त सरकार से नहीं, बल्कि ज़िम्मेदार विपक्ष से भी होती है।
आज हिंदुस्तान का विपक्ष दिशाहीन, मुद्दाहीन और नीति-विहीन हो चुका है।
जातीय समीकरण, व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा और अवसरवाद ने उसकी रीढ़ तोड़ दी है।
गरीब, किसान, मजदूर, छात्र और बेरोजगार — जिनके मुद्दे लोकतंत्र का मूल थे — वे अब केवल भाषणों के शब्द रह गए हैं।
विपक्ष का संघर्ष “विचारों की लड़ाई” नहीं रहा, बल्कि “सत्ता पाने की रणनीति” बन चुका है।
मुद्दाहीन और नीति विहीन विपक्ष, जातिवादी सोच और सत्ता के लिए राष्ट्र विरोधी नीति — यह बहुत बड़ा खतरा है।
ऐसा विपक्ष जनता को विकल्प नहीं देता, बल्कि निराशा देता है।
और निराशा लोकतंत्र की सबसे घातक बीमारी है।
भीड़तंत्र बनाम जनतंत्र
लोकतंत्र का आधार विवेक है, लेकिन आज उसकी जगह “भावनाओं का उन्माद” ले चुका है।
जनता को तर्क नहीं, ट्रेंड से संचालित किया जा रहा है।
जहाँ सोचने की जगह भड़काने की कला चलती है, वहाँ लोकतंत्र भीड़तंत्र में बदल जाता है।
यह वही दौर है जहाँ सच्चाई झूठ की भीड़ में खो जाती है और प्रचार, विचार पर भारी पड़ जाता है।
लोकतंत्र का भविष्य तब तक सुरक्षित नहीं जब तक जनता सोशल मीडिया पोस्ट से ज़्यादा संसदीय बहस को महत्त्व नहीं देगी।
लोकतंत्र की आत्मा पर मीडिया और पूंजी का नियंत्रण
एक स्वस्थ लोकतंत्र में मीडिया चौथा स्तंभ होता है —
लेकिन आज का मीडिया सत्ता और पूंजी के गठबंधन का “पब्लिक रिलेशन ऑफिस” बनता जा रहा है।
जहाँ से विज्ञापन आता है, वहाँ से सवाल नहीं उठते।
टीआरपी की होड़ में पत्रकारिता अब सत्य की खोज नहीं, सनसनी का व्यापार बन चुकी है।
और यही कारण है कि जनता तक सच्चाई नहीं, बल्कि “चमकीला झूठ” पहुंचता है।
जब मीडिया लोकतंत्र का प्रहरी न रहकर सत्ता का प्रवक्ता बन जाए, तो लोकतंत्र की रीढ़ टूट जाती है।
संस्थानों की गिरती स्वायत्तता
लोकतंत्र तभी जीवित रहता है जब संस्थाएँ स्वतंत्र रहें।
लेकिन आज इन संस्थानों की हालत चिंताजनक है।
विधायिका में संवाद की परंपरा खत्म, कार्यपालिका पर दबाव, न्यायपालिका पर प्रश्न और जांच एजेंसियों पर अविश्वास —
यह सब मिलकर लोकतंत्र को “संवैधानिक खोल” में कैद कर रहे हैं।
संविधान की आत्मा तब घायल होती है जब संस्थाएँ “सत्ता की सेवा” में लग जाएँ और “जनसेवा” भूल जाएँ।
जनता की मौन स्वीकृति: लोकतंत्र की कब्र
लोकतंत्र का सबसे बड़ा शत्रु कोई तानाशाह नहीं, बल्कि मौन जनता होती है।
जब जनता सवाल करना छोड़ देती है, तो सत्ता जवाबदेही छोड़ देती है।
आज नागरिक समाज, बुद्धिजीवी वर्ग और युवा पीढ़ी या तो बंट चुकी है या भयभीत है।
लोकतंत्र तभी तक जीवित है जब तक नागरिक चेतन हैं।
जनता को यह समझना होगा कि मतदान करना लोकतंत्र का आरंभ है, अंत नहीं।
अगर वोट के बाद जनता सो जाएगी, तो लोकतंत्र हमेशा के लिए किसी और के हाथों में चला जाएगा।
वैश्विक परिप्रेक्ष्य: क्या भारत भी उसी राह पर?
दुनिया के कई लोकतांत्रिक देशों में यही संकट देखने को मिल रहा है।
- अमेरिका में लोकतंत्र अब “ध्रुवीकरण” का शिकार है।
- रूस और चीन में लोकतंत्र का नाम है, पर सत्ता केंद्रीकरण ने जनता को केवल प्रतीक बना दिया है।
- तुर्की, पाकिस्तान और श्रीलंका जैसे देशों में लोकतांत्रिक संस्थाएँ सत्ता के दबाव में झुक गईं।
भारत को इस रास्ते पर नहीं चलना चाहिए।
क्योंकि यहाँ लोकतंत्र केवल शासन प्रणाली नहीं, बल्कि संस्कृति है —
एक ऐसी संस्कृति जहाँ असहमति को भी सम्मान मिलता है।
आगे का रास्ता: लोकतंत्र की पुनर्प्रतिष्ठा
हमें यह स्वीकार करना होगा कि लोकतंत्र का भविष्य केवल सरकार या विपक्ष तय नहीं करेगा — बल्कि जनता की चेतना तय करेगी।
अगर जनता सवाल पूछेगी, संवाद करेगी और भागीदारी निभाएगी, तो लोकतंत्र फिर से जीवित होगा।
कुछ आवश्यक सुधार आज भी संभव हैं:
- राजनीतिक दलों में आंतरिक लोकतंत्र को लागू किया जाए।
- चुनावी फंडिंग पूरी तरह पारदर्शी की जाए।
- मीडिया पर कॉर्पोरेट नियंत्रण कम किया जाए।
- शिक्षा व्यवस्था में नागरिकता और संवैधानिक मूल्य पढ़ाए जाएँ।
- विपक्ष को वैचारिक रूप से सशक्त और संगठित बनाया जाए।
हमारा लोकतंत्र आज एक दोराहे पर खड़ा है —
एक रास्ता संविधान की ओर जाता है, जहाँ समानता, न्याय और स्वतंत्रता की रोशनी है।
दूसरा रास्ता उस तंत्र की ओर जाता है जहाँ सत्ता, प्रचार और पूंजी का अंधकार है।
अगर हमने अब भी आत्ममंथन नहीं किया, तो इतिहास हमें माफ नहीं करेगा।
हमारे पुरखे जिन्होंने आज़ादी की लड़ाई लड़ी, वे यही पूछेंगे —
“क्या हमने लोकतंत्र दिया था या केवल एक चुनावी मशीन?”
लोकतंत्र को बचाना केवल एक राजनीतिक नारा नहीं, बल्कि एक राष्ट्रीय कर्तव्य है।
और यह तभी संभव है जब हर नागरिक यह ठान ले — “मैं केवल वोटर नहीं, इस लोकतंत्र का प्रहरी हूँ।”
✍️ लेखक:
अशोक कुमार झा
प्रधान संपादक — रांची दस्तक एवं PSA Live News

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